________________
130 :: मूकमाटी-मीमांसा
सुरभि से सुरभित भी !" (पृ. १०७) रचना पुष्प की भाँति है । वह 'समग्रता' को सुरभित करती है । मंगल घट की पवित्रता को बढ़ाती है । ज्ञान ज्योति प्रकाशित करती है । शूल को भी फूल बनाने की अप्रतिम शक्ति उसमें निहित है। माटी खोदने में भी एक सुगन्ध है, वह सुगन्ध अन्तस् को देदीप्यमान करता है । साहित्य एवं कला का 'शब्द' वहीं से जन्मता है। शिल्पी शब्द को व्यापक बनाकर उसके अर्थ-गाम्भीर्य को व्यक्त करता है :
"शिल्पी के शिल्पक साँचे में/साहित्य शब्द ढलता-सा! "हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो
सही साहित्य वही है।” (पृ. ११०-१११) साहित्य अपनी कलात्मकता में अनुपम है। शब्द-बोध उसकी सहज प्रक्रिया है। माटी की मौनता भी कलात्मक ढंग से बोध कराती है । यह उसकी अपनी 'निजता' है । निजता अपने महत्त्व को सदैव प्रतिष्ठित करती है। माटी की महिमा भी प्रतिष्ठित है :
"माटी की वह मति/मन्दमुखी हो मौन में समाती है, म्लान बना शिल्पी का मन भी/नमन करता है मौन को,
पदों को आज्ञा देने में/पूर्णत: असमर्थ रहा।" (पृ. ११६) माटी का रूप, रस, गन्ध, सौन्दर्य सभी बोध एवं शोध के कारण ही विराटत्व से जुड़ा है।
'मूकमाटी' का तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' है । इसमें पुण्य की महिमा का गायन है । कर्म से ही पुण्य की प्राप्ति होती है । शुभत्व एवं मंगलव का साम्राज्य स्थापित होता है । माटी का मंगल घट पुण्य की वर्षा करके समग्र धरित्री की प्यास बुझाकर हरीतिमा का विस्तार करता है । पुण्य, वृक्ष, पक्षी, पशु, पर्वत, घाटियाँ, नदियाँ, झरने आदि सभी हर्षोल्लास से भरकर अपनी प्रसन्नता का परिचय प्रदान करते हैं। कुम्भकार का प्रांगण मंगलभाव से भर उठता है । यह वर्षा मुक्तायुक्त है। कहीं भी विषाद, पीड़ा, नैराश्य एवं अवसाद के मेघ दृष्टिगोचर नहीं होते। माटी की सोंधी महक जीवन को नव संचार से भरती है। यह समाचार जब दिग्दिगन्त में फैलता है तो राजा की स्वामीभक्त मण्डली प्रसन्न होती है और उसे मुक्ता-राशि को बटोरने का लोभ जागृत होता है । वे जैसे ही मुक्ता-राशि को समेटने में प्रवृत्त होते हैं, 'अनर्थ-अनर्थ' की गर्जना ध्वनित होती है। पापाचारियों के हृदय डोल उठते हैं। पुण्य-लाभ कल्मषगताचारियों को कहाँ ? राजा और उनकी मण्डली हतप्रभ हो उठती है । अन्त में कुम्भकार विचार करके वह असीम मुक्ताराशि राजा के हवाले कर देता है। कुम्भकार का कथन है :
“आप प्रजापति हैं, दयानिधान !/हम प्रजा हैं दया-पात्र, आप पालक हैं, हम बालक!/यह आप की ही निधि है
हमें आप की ही सन्निधि है/एक शरण!" (पृ. २१६) चिन्तन, बोध और शोध क्षमाशीलता में अभिवृद्धि करते हैं। नवीनता और पुण्य के प्रति चेतना समर्पित होती है। 'समग्रता' और विराटत्व ही सुखकर प्रतीत होता है । लोभ-स्वार्थ की कुल्या क्षीण हो जाती है । औदार्य, क्षमा, पुण्य