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________________ का महासागर लहराने लगता है । जीवन की व्याख्या नवीनता से अनुस्यूत होने लगती है : मूकमाटी-मीमांसा :: 131 “ नये चरण - संचरण / नये करण - संस्करण / नया राग, नयी पराग नया जाग, नहीं भाग/ नये हाव तो नयी तृपा / नये भाव तो नयी कृपा नयी खुशी तो नयी हँसी / नयी-नयी यह गरीयसी ।” (पृ. २६३ ) चतुर्थ एवं अन्तिम खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक से है। इसमें रचनाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जब कुम्भकार अपनी शिल्पकला के माध्यम से घट निर्मित कर लेता है तो उसे पक्व रूप देने का प्रयास करता है । अवाँ में लकड़ियाँ प्रज्वलित की जाती हैं। घट अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त करने को तत्पर है । उसकी अग्नि परीक्षा होती है। माटी अपने उच्चतम स्वरूप को प्राप्तकर गौरवान्वित है। यह स्वरूप उसे गुरु तुल्य शिल्पी से प्राप्त हुआ है । धरित्री का अशेष आशीष भी उसके साथ है। लकड़ी अपनी सम्पूर्ण ऊष्मा एवं ऊर्जा के साथ घट को परिपक्वता देने के लिए जल रही है, राख बन रही है, अस्तित्व को अनस्तित्व से मिला रही है : : "लड़खड़ाती लकड़ी की रसना / रुकती - रुकती फिर कहती है" निर्बल-जनों को सताने से नहीं, / बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है ।" (पृ. २७२ ) अवाँ को पुष्ट करके घट को उसी में रखा गया है : "अवा के मुख पर दबा-दबा कर / रवादार राख और माटी ऐसी बिछाई गई, कि / बाहरी हवा की आवाज़ तक अवा के अन्दर जा नहीं सकती अब..!" (पृ. २७३ ) लकड़ी जलने को तत्पर है। रचनाकार ने गम्भीर वाणी में असत् वृत्तियों को जलाने का रूपक तैयार किया है : " मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है / स्व-पर दोषों को जलाना परम- धर्म माना है सन्तों ने । / दोष अजीव हैं, / नैमित्तिक हैं, बाहर से आगत हैं कथंचित्; / गुण जीवगत हैं, / गुण का स्वागत है।" (पृ. २७७) गुण वन्दनीय, ग्राह्य एवं शुभ हैं। माटी का घट स्वर्ण कलश के लिए ईर्ष्या का हेतु है । यह मानवीय प्रवृत्ति है । साधारण व्यक्ति श्रम, निष्ठा, अध्यवसाय से प्रगति करता है तो स्वयम्भू शक्ति को सुहाता नहीं है। वही स्थिति 'स्वर्णकलश' की है । आतंक दल इसे अपवित्र एवं ध्वस्त करने को तत्पर है। नगर सेठ के पास मंगल घट गुरु के पद - प्रक्षालनार्थ प्रस्तुत है । अपनी श्रद्धा से पद धोकर पुण्य लाभ करे । माया-मोह ग्रस्त सेठ अनमना है । आतंक दल को वह कुछ नहीं कहता। उसकी यह चुप्पी उसके भीरु स्वभाव का द्योतक है। मनीषी रचनाकार ने आधुनिक सन्दर्भों में इस कथावस्तु का विस्तार किया है। आज आतंक दल, सेठ, स्वर्ण मुद्रा तथा गुरु की स्थिति समाज में स्पष्ट है। यह विचारणीय विषय है । यह भी सत्य है कि गुरु तो मात्र 'राह दिखाने वाला' है । उद्धार तो स्वयं के प्रयास से होता है। ज्ञान, विवेक, पुण्य, सत्य धर्म, न्याय का पालन तो 'अपने' सम्भव है। काकुम्भ सर्वोत्कृष्ट आसन पर विराजमान है। उसमें किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं है वरन् गौरवान्वित " सबसे आगे कुम्भ है / मान - दम्भ से मुक्त, / नव-नव व्यक्तियों की
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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