________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 129
दया-धर्म की/प्रभावना हो!" (पृ. ७७-७८) उपनिषद् में भी जययात्रा के सम्बन्ध में उल्लिखित है : “चरैवेति चरैवेति चरन् वै मधु विन्दति' 'चलना ही ज़िन्दगी है-रुकना मौत है', 'यात्रा कभी निष्फल नहीं होती', वह सफलता तथा आनन्द का आधार है तथा जीवन एवं गतिशीलता का प्रतीक है । वर्ण संकरत्व दोष गतिशीलता से ही दूर हो सकता है, मूल रूप की प्राप्ति तभी सम्भव है। माटी इस रूप की प्राप्ति हेतु सतत गतिशील है।
____ इस कृति का द्वितीय खण्ड है -'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं।' इसमें दर्शन एवं अध्यात्म की चर्चा गम्भीरता के साथ हुई है। शब्द चेतना का प्रतीक है। ध्वनि या आवाज़ से ही श्रवण शक्ति संचरित है। श्रवण, चिन्तन, मनन आदि बोध को पुष्ट करते हैं । बोध अर्थात् जानकारी (ज्ञान) के अभाव में जिज्ञासा कहाँ ? जिज्ञासा ही शोध, अन्वेषण, तलाश या खोज की प्रवृत्ति को पैनी करती है । इस प्रकार शब्द की यात्रा खोज के बिन्दुओं तक अनवरत रूप से चलती रहती है । यह खोज अविराम है । इसमें भाव, विभाव तथा रसानुभूति की गहन तीव्रता विद्यमान है । अनुसन्धित्सु मौन रहकर अखण्ड आनन्द की सहज अनुभूति करता है । यह उद्गार बिलकुल सत्य है :
"ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है।
अस्थिर को स्थिरता मिली/अचिर को चिरता मिली/नव-नूतन परिवर्तन!"(पृ.८९) यह शब्द-बोध का ही कमाल है कि 'चेतना' का नर्तन प्रारम्भ होता है जो ‘समग्रता' को प्रभावित करता है :
"तन में चेतन का/चिरन्तन नर्तन है यह/वह कौन-सी आँखें हैं ।
किस की, कहाँ हैं/जिन्हें सम्भव है/इस नर्तन का दर्शन यह !" (पृ. ९०) भारतीय संस्कृति के पुरोधा महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी कालजयी कृति 'कामायनी' में 'चेतनता' को पूर्ण शक्ति सम्पन्न सिद्ध किया है। "चेतनता एक विलसती/आनन्द अखण्ड घना था।" चेतना आनन्द का मूल है। आत्मा इसी आनन्द की प्राप्ति हेतु परमात्मा की ओर टकटकी बाँधे देखती है। माटी भी अपनी मुक्ति हेतु चेतना के रथ पर आरूढ़ होना चाहती है । माटी और कुम्भकार का सम्बन्ध प्रकृति और पुरुष का है। एक के अभाव में दूसरे की स्थिति नगण्य, व्यर्थ एवं शून्य है। परस्पर प्रेम और आकर्षण इसका रहस्य है । इसकी अभिव्यक्ति रचनाकार ने की है :
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना हो/मोक्ष है, सार है।/और/अन्यत्र रमना ही
भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) यह जगत् असार है । इसकी महत्ता तभी है जब बोध से सम्पन्न होकर शोध करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो । बोध-शोध का यह क्रम ही फलाफल को उत्पन्न करता है । स्थिति के अनुसार उसका भोग भी मिलता है :
"बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है ।/बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है,/ फूल का रक्षण हो/और फल का भक्षण हो; /हाँ ! हाँ !!/फूल में भले ही गन्ध हो । पर, रस कहाँ उसमें!/फल तो रस से भरा होता ही है,/साथ-साथ