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128 :: मूकमाटी-मीमांसा
“तूने जो/अपने आपको/पतित जाना है/लघु-तम माना है/यह अपूर्व घटना इसलिए है कि/तूने/निश्चित रूप से/प्रभु को,/गुरु-तम को/पहचाना है !
तेरी दूर-दृष्टि में/पावन-पूत का बिम्ब/बिम्बित हुआ अवश्य !" (पृ. ९) गुरु की पहचान होने पर सहज ही कल्याण पथ प्रशस्त होता है। गुरु की कृपा प्राप्त करना सहज, सरल नहीं है। उसके लिए साधना और कर्म करना होता है । माटी भी अपने कुम्भकार-गुरु की कृपा प्राप्ति हेतु प्रतिक्षण व्यग्र है। इसके लिए आशा, उत्साह और साहस का अभाव नहीं होना चाहिए :
"कभी-कभी/गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी/आह भरते हैं,/मन खिन्न होता है/किन्तु यह सब आस्थावान् पुरुष को/अभिशाप नहीं है,/वरन्
वरदान ही सिद्ध होते हैं/जो यमी, दमी/हरदम उद्यमी है।" (पृ. १३) माटी का संकल्प ही उसे घट में परिवर्तित कर मंगल भावना से सम्पृक्त करता है। माटी गुरु कृपा से स्वर्ण में बदल जाती है । अनिश्चय, शंका, सन्देहों से मुक्त होकर माटी अपने लक्ष्य को अनायास ही प्राप्त करती है । श्रेष्ठता का मानक ही जीवन को उत्कृष्टता प्रदान करता है।
"अविकल्पी है वह/दृढ़-संकल्पी मानव/अर्थहीन जल्पन
अत्यल्प भी जिसे/रुचता नहीं कभी!" (पृ. २७) शिल्पी अपनी तूलिका में जो रंग भरता है, वस्तु की स्थिति-परिस्थिति को देख कर और परख कर ही निर्णय करता है । माटी का संकल्प ही उसे शिल्पी के कुशल हाथों में पहुँचाता है। उसका विवेक और दृढ़ निश्चय इस दृष्टि से श्लाघ्य एवं प्रशंसनीय है । शिल्पी के हाथों माटी अपना भविष्य मंगलमय मानती है । उसके वर्ण संकरत्व को शिल्पी ही सँभालता है, कूट-छानकर उसे सौन्दर्य मण्डित कर उपयोगी भी बनाता है। माटी के प्रति उसका ममत्व भी कम नहीं है, तभी तो :
“आज माटी को/बस फुलाना है/पात्र से, परन्तु अनुपात से/जल मिलाकर
उसे घुलाना है ।/आज माटी को/बस फुलाना है।” (पृ. ५७-५८) माटी अपनी अकिंचनता पर दु:खी तो है किन्तु धरती माँ के आशीष एवं कुम्भकार के स्नेह पर उसे पूर्ण विश्वास भी है । उसकी यात्रा को ये ही सार्थकता प्रदान करेंगे :
"मोक्ष की यात्रा/"सफल हो/मोह की मात्रा/"विफल हो धर्म की विजय हो/कर्म का विलय हो/जय हो, जय हो
जय-जय-जय हो !" (पृ. ७६-७७)। इस जययात्रा में कल्याण की भावना समाहित है । इसके प्रति शुभ संकेत है :
"इस शुभ यात्रा का/एक ही प्रयोजन है,/साम्य-समता ही/मेरा भोजन हो सदोदिता सदोल्लसा/मेरी भावना हो,/दानव-तन धर/मानव-मन पर हिंसा का प्रभाव ना हो,/दिवि में, भू में/भूगों में/जिया-धर्म की