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मूकमाटी-मीमांसा :: 123 स्थित होकर सिद्धावस्था को प्राप्त होता है । इस प्रक्रिया में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसका प्रतिनिधित्व कथंचित् कुम्भकार के रूप में काव्य में दर्शित है । २२० पृष्ठों में काव्य का यह चतुर्थ खण्ड पूरे काव्य का क़रीब-करीब आधा हिस्सा है। पूरे काव्य की पृष्ठ संख्या ४८८ है।
यह 'मूकमाटी' महाकाव्य है या नहीं, इसका जब हम ग्रन्थ-विस्तार की दृष्टि से विचार करते हैं तो इसे महाकाव्य कह सकते हैं। परन्तु महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों की दृष्टि से इसे महाकाव्य नहीं कहा जा सकता है। महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणानुसार महाकाव्य में निम्न लक्षणों का होना आवश्यक है : (१) विषय वस्तु सर्गों में विभक्त होना चाहिए । सर्गों की संख्या आठ से अधिक होना चाहिए। सर्ग न तो
बहुत छोटे हों और न बहुत बड़े । सामान्य रूप से सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग प्रचलित हो, परन्तु
सर्गान्त में छन्द परिवर्तन का नियम है । सर्ग के अन्त में भावी कथा का संकेत हो । (२) नायक कोई देवता या उच्च वंशोत्पन्न धीरोदात्त गुणों से युक्त कोई क्षत्रिय हो । एक ही वंश में उत्पन्न
कई राजा भी नायक हो सकते हैं। वर्तमान काव्यों में नायक कोई भी हो सकता है। (३) शृंगार, वीर वा शान्त-इन तीन रसों में कोई एक मुख्य तथा अन्य रस अंग रूप से हों। (४) उद्देश्य रूप चतुर्विध पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में से कोई एक हो । (५) कथानक इतिहास प्रसिद्ध हो या सज्जनाश्रित हो । (६) सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, दिन, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र आदि विषयों का सांगोपांग वर्णन हो । (७) नाट्य सन्धियों से युक्त हो। (८) प्रारम्भ में मंगल, सज्जन प्रशंसा एवं दुर्जन निन्दा आदि हो । (९) महाकाव्य का नामकरण नायक के नाम, वर्ण्यविषय या किसी अन्य आधार पर हो । (१०) कथावस्तु आंगिक (एक घटना प्रधान) न होकर समग्र (जीवन का चित्रण करती) हो।
महाकाव्य की ये सभी विशेषताएँ सभी महाकाव्यों में घटित नहीं होती। यद्यपि ये अनिवार्य लक्षण न होकर सामान्य लक्षण हैं, तथापि प्रथम नियम और अन्तिम नियम रूप कथावस्तु समग्र हो, आंशिक नहीं तथा आठ सर्गों का होना सभी महाकाव्यों में पाया जाता है । अन्य नियम सामान्य रूप से ही पाए जाते हैं।
इस दृष्टि से देखने पर 'मूकमाटी' को महाकाव्य नहीं कहा जा सकता है। जिन महाकाव्यों में शृंगार आदि रसों तथा लौकिक जीवन की घटनाओं का चित्रण रहता है, वह भी इस रूप में नहीं है। 'मूकमाटी' के चार खण्डों को यदि विषयानुसार आठ सर्गों में विभक्त कर दिया गया होता तो महाकाव्य कहा जा सकता था।
शास्त्रीय परिभाषानुसार यह महाकाव्य है या नहीं, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि कविवर का चित्चमत्कार, जो महाकाव्य की आत्मा है । इस काव्य के कुछ अवलोकनीय स्थल हैं : (१) गुरु हित-मित-प्रिय प्रवचन दे सकते हैं, वचन नहीं :
“हित-मित-मिष्ट वचनों में/प्रवचन देना उसे,/किन्तु
कभी किसी को/भूलकर स्वप्न में भी/वचन नहीं देना।" (पृ. ४८६) (२) कला शब्द का अभिनव अर्थ :
"कला शब्द स्वयं कह रहा कि/'क' यानी आत्मा-सुख है