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________________ 'मूकमाटी' : एक प्रतीकात्मक दार्शनिक काव्य प्रो. (डॉ.) सुदर्शन लाल जैन सन्त शिरोमणि पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर की अन्तरात्मा से नि:सृत 'मूकमाटी' एक प्रतीकात्मक दार्शनिक काव्य है । आध्यात्मिक चिन्तन में लवलीन साधक ही इस अमृत रस का स्वाद जान सकता है । पद दलित 'मूकमाटी', जो कर्मबद्ध आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है, वह सम्यक् दर्शन (वर्ण लाभ), सम्यक् ज्ञान (बोध), सम्यक् चारित्र (शोध) और सम्यक् तप(अग्नि परीक्षा) के माध्यम से सर्वोपरि, सर्वपूज्य, शुद्ध दशा को प्राप्त करती है। इसमें प्रसंगानुसार जैन दर्शन के प्राय: सभी सिद्धान्तों का समावेश मिलता है। जैसे-द्रव्य परिभाषा, कर्म सिद्धान्त, लेश्या, मुक्तात्मा, रत्नत्रय, उपादान-निमित्त कारण की व्यवस्था, गुण जीव से पृथक् नहीं, पानी छान कर उपयोग करना, तप, मुक्त जीव का संसार में पुनरागमन निषेध आदि । इस काव्य की इस सन्दर्भ में यह विशेषता है कि दार्शनिक सिद्धान्तों को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक बोझिल नहीं होता । मूकमाटी के माध्यम से कविवर आचार्य ने कर्मबद्ध आत्मा की मुक्ति की ओर बढ़ती हुई विशुद्धतर और विशुद्धतम दशा का चित्रण प्रतीकात्मक काव्य के माध्यम से किया है। अंकों का चमत्कार तथा प्रचलित शब्दों की अर्थान्तर प्रतिध्वनियाँ सर्वत्र व्याप्त हैं । लोक जीवन के सन्दर्भ में आतंकवाद, समाजवाद, पूँजीवाद आदि का भी सम्यक् समावेश किया गया है । काव्य के अलंकारों में अनुप्रास आदि शब्दालंकारों और उपमा आदि अर्थालंकारों का प्रयोग प्रसंगानुकूल है। काव्य रस विचार की दृष्टि से इसमें शान्त रस का प्राधान्य है। प्रस्तुत काव्य को निम्नलिखित चार खण्डों में विभक्त किया गया है तथा प्रत्येक खण्ड में क्रमश: ८८, ९९, ७९ तथा २२० पृष्ठ हैं। १. संकर नहीं : वर्ण-लाभ (सम्यग्दर्शन) मिट्टी की कंकर आदि से मिश्रित अवस्था उसकी संकर अवस्था है। विजातीय कंकरों (कर्मों) से पृथक् स्वस्वरूप का भान ही वर्ण लाभ है। राग-द्वेषजन्य कर्म सम्बन्ध के कारण आत्मा अपने संकर रूप को प्राप्त है । जब उसे यह भान हो जाता है कि कर्म आत्मा से पृथक् हैं तो यह उसका वर्ण लाभ या सम्यग्दर्शन है। २. शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं (सम्यग्ज्ञान) वर्ण या शब्द की सार्थकता उसके बोध (ज्ञान) में है। केवल शब्दबोध या वर्णबोध से व्यक्ति पण्डित तो बन सकता है, शोधक नहीं। बोध (सम्यग्ज्ञान) की सार्थकता तभी है, जब शोध (सम्यक् चारित्र) हो । शब्द के अर्थ को समझना बोध है और बोध को आचरण या अनुभूति में उतारना शोध है । शोध के बिना बोध में आकुलता और बोध सहित शोध में निराकुलता है तथा निराकुलता में महक है। ३. पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन (सम्यक् चारित्र) शोध की दिशा बढ़ने पर लोकोपकारी कार्यों के सम्पादन से पुण्य का पालन होता है और पापों का प्रक्षालन होता है। पुण्य स्वरूप प्राप्त मुक्ताराशि का कुम्भकार द्वारा राजा को समर्पण यह द्योतित करता है कि पुण्य फल की कामना नहीं करना चाहिए, मुक्ति तभी सम्भव है। ४. अग्नि की परीक्षा : चाँदी सी-राख (सम्यक् तप) जिस प्रकार मिट्टी के घट को जब तक आग में नहीं पकाया जाता है, तब तक उसमें न तो जलधारण आदि सम्भव है और न उसमें मंगल कलश का रूप प्रकट होता है । आग में तपाने पर ही उसमें जलधारण आदि सम्भव है। उसी प्रकार बिना तप रूपी अग्नि में तपे जीव सिद्ध नहीं होता । तप रूपी अग्नि में तप्त हो कर शुद्ध हुआ जीव लोकान्त में
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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