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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 121 कलावादियों की आत्मरति और आत्ममुग्धता साहित्य को हाथीदाँत की मीनारों में क़ैद कर देगी । वीतराग और साधु होने के उपरान्त भी जिस तरह तुलसी, कबीर, सूर आदि ने जन और उसके जीवन के संघर्षों/घातों- प्रत्याघातों से अपने को सम्पृक्त रखा था, अपने साहित्य में उनकी अस्मिता और अस्तित्व को अक्षुण्ण रखा था, प्रकारान्तर से आचार्य विद्यासागर भी साहित्य और उसके शिल्प को जन से पराङ्मुख नहीं करते (पृ. १११) । 'मूकमाटी' : : समग्र आकलन सैकड़ों पृष्ठ लिख दिए जाएँ और समीक्षा / शोध को उद्धरण - बोझिल बना दिया जाय, यह उद्देश्य इस आलोचक कहीं है । कलेवर की स्थूलता नहीं, कम से कम शब्दों में कृति की कमनीयता, उसकी समग्रता को प्राध्यापकीय और रूढ काव्य/आलोचना शास्त्र से परे हटकर प्रस्तुत किया जाय, यही मेरा उद्देश्य है । ऊपर के पृष्ठों में मैंने 'मूकमाटी' को हिन्दी साहित्य ही नहीं, भारतीय साहित्य के गौरव काव्यग्रन्थों में से एक कहा है । ग्रन्थ का सम्यक् मूल्यांकन करने पर यह कथन स्वत: सिद्ध हो जाता है । १. 'मूकमाटी' शीर्षक पुराना और घिसा-पिटा लगता है, किन्तु मूक होते हुए भी माटी का अन्तर्द्वन्द्व, हाहाकार और उसकी कुम्भ के रूप में सामाजिक उपयोगिता सर्वहारा की अपनी अभिव्यक्ति है । बिना वामपंथी चोला धारण किए कवि ने यह सहजता पूर्वक निरूपित किया है। २. कवि का काव्य कौशल श्लाघनीय है । मुक्तछन्द में महाकाव्य की संरचना आज भी एक कठिन और दुःसाध्य कार्य है। धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, कुंवरनारायण आदि ने क्रमश: 'अन्धा युग', 'संशय की एक रात, 'नचिकेता' जैसे लघु खण्डकाव्य ही रचे । शायद मुक्त छन्द में यह हिन्दी का पहला सफल महाकाव्य है । ३. साहित्य की शुद्धता, शुद्ध कविता के प्रतिमान जैसी साहित्यिक पेचीदगियों में भटकाना इस लघु शोध / समीक्षा का उद्देश्य नहीं । यदि कवि अपनी पूरी ईमानदारी और सामाजिक सरोकारों से सम्पृक्त होकर ऐसा कुछ सृजन करता है जो एक साथ पौराणिक, काल्पनिक, यथार्थ और प्रसांगिकता का युगानुकूल रसायन है, तो उसके कर्तव्य का उसने निर्वाह किया है। हमें हर्ष है कि हम उस रचनाकार के समकालीन हैं, जिसने अपनी लेखनी से मूकमाटी की व्यथा को उकेरा है । ४. धरती माँ है, कुम्भ और कुम्भकार उसके पुत्र हैं। स्वर्ण और सारी आर्थिक एषणाएँ कवि ने मिट्टी और मनुपुत्र से श्रेष्ठ नहीं जानी हैं। ५. मनुष्य अपने राग-विराग, हर्ष-विमर्ष और सारी कमज़ोरियों के बावजूद भौतिकता की जड़ता को अतिक्रमित करके समता, बन्धुता और विश्व मानवता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । यह दिव्य सम्भावना इस महाकाव्य में है, इसीलिए मैंने एकाधिक बार दुहराया है कि तुलसी, सूर, कबीर, रवीन्द्रनाथ और श्री अरविन्द की काव्यकृतियों के समकक्ष यह महाकाव्य सम्प्रदायातीत ही नहीं, कालातीत है, अत: कालजयी है। पृष्ठ ४५१-४५३ जब आग की नरीको पार कर आये हम....... 'नीर को धारण करे सो धरणी नीर का पालन करे सो धरणी !
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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