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मूकमाटी-मीमांसा :: 119
उनकी कुछ काव्य पंक्तियाँ तो सूक्तियों की तरह हैं : ____ “यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।" (पृ. १९२) 0 “नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी
अपने घुटने टेक देता है।" (पृ. २६९) . "मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।" (पृ. २७७) ० "परीक्षक बनने से पूर्व/परीक्षा में पास होना अनिवार्य है,
अन्यथा/उपहास का पात्र बनेगा वह ।” (पृ. ३०३) किन्तु सूक्तियाँ कविता नहीं होती। फिर लौटें कविता की ओर । मुझे इस ग्रन्थ को पढ़ते हुए कई बार कविता की कौंध इसके कुछ पृष्ठों में दिखाई दी। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
0 “किन शब्दों में अग्नि से निवेदन करूँ,/क्या वह मुझे सुन सकेगी ?
क्या उस पर पड़ सकेगा/इस हृदय का प्रकाश-प्रभाव ? क्या ज्वलन जल बन सकेगा,/इसकी प्यास बुझ सकेगी ? कहीं वह मुझ पर कुपित हुई तो ?/यूँ सोचता हुआ शंकित शिल्पी एक बार और जलाता है अग्नि ।” (पृ. २७५) "दूरज होकर भी/स्वयं रजविहीन सूरज ही/सहस्रों करों को फैलाकर सुकोमल किरणांगुलियों से/नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी
शिल्पी की पलकों को सहलाता है।" (पृ. २६५) 0 "वज्राघात से आहत हो/मेघों के मुख से 'आह' ध्वनि निकली,
जिसे सुनते ही/सौर-मण्डल बहरा हो गया।" (पृ. २४७) 'मूकमाटी' में मौलिक विचारशीलता
___ आलोच्य काव्यग्रन्थ में निरी कल्पना की उड़ान नहीं है । मौलिक विचारों की उद्भावना भी इस अद्भुत काव्य में हमें प्राप्त होती है :
0 "क्रोध का पराभव होना सहज नहीं ।” (पृ. २५२) ० "वैसे,/स्वर्ण का मूल्य है/रजत का मूल्य है
कण हो या मन हो/प्रति पदार्थ का मूल्य होता ही है, परन्तु,/धन का अपने आप में मूल्य/कुछ भी नहीं है।" (पृ. ३०७-३०८) "प्राय: सब की चोटियाँ/अधोमुखी हुआ करती हैं, परन्तु/श्रीफल ऊर्ध्वमुखी है।" (पृ. ३११)