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________________ 118 :: मूकमाटी-मीमांसा निकट, अधिक उपादेय है । स्वर्ण कलश को सम्बोधित कवि का कथन कितना सटीक है : "परतन्त्र जीवन की आधारशिला हो तुम,/पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला ! हे स्वर्ण-कलश !/एक बार तो मेरा कहना मानो, कृतज्ञ बनो इस जीवन में,/माँ माटी को अमाप मान दो!" (पृ. ३६६) एक सनातन श्रद्धा और अश्रद्धा के पात्र 'ईश्वर'(परम पुरुष) के सम्बन्ध में कवि का अपना मौलिक विचार, मौलिक दृष्टि है जो आन्दोलित करती है, जिसे हम अनसुना नहीं कर सकते, चाहे उस स्थापना' से हम सहमत भले ही न हों : "पुरुष और प्रकृति के संघर्ष से/खर-नश्वर प्रकृति के संघर्ष से/उभरते हैं स्वर ! पर, परम पुरुष से नहीं।/दुःस्वर हो या सुस्वर/सारे स्वर नश्वर हैं। भले ही अविनश्वर हों/ईश्वर परमेश्वर ये परन्तु,/उनके स्वर तो नश्वर ही हैं !" (पृ. १४३) साथ ही कवि का मानसिक अन्तर्द्वन्द्व इन शब्दों में भी प्रकट होता है : "बिलखती इस लेखनी को/विश्व लखता तो है इसे भरसक परखता भी है/ईश्वर पर विश्वास भी रखता है और/ईश्वर का इस पर गहरा असर भी है। पर, इतनी ही कसर है कि/वह असर सर तक ही रहा है, अन्यथा/सर के बल पर क्यों चल रहा है,/आज का मानव ?" (पृ. १५१) ___क्या इन पंक्तियों में महाकवि अकबर इलाहाबादी का अप्रत्यक्ष या प्रच्छन्न प्रभाव नहीं है । अकबर कहते "इश्क को दिल में जगह दे अकबर इल्म से शायरी नहीं आती।" 'इश्क' से उनका तात्पर्य निश्चय ही ईश्वर के पर्याय से है। ____ यह कविवर विद्यासागरजी का अन्तर्द्वन्द्व ही है जो एक ओर तो परम पुरुष या परमेश्वर के स्वर को नश्वर समझता है, दूसरी ओर “कसर यह है कि (उसका) असर सर तक ही रहा है" (यानी दिल तक ईश्वर का प्रभाव अपेक्षित है । अस्तु) प्रकृति, परमेश्वर की पहेली को छोड़कर कवि के अन्य कथ्य की ओर दृष्टिपात भी कर लें : “सीप स्वयं धरती का अंश है।/स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर सागर में प्रेषित किया है ।/जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, घृति-धारिणी धरा का ध्येय है।" (पृ. १९३)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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