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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 109 साधुत्व की राह में मार्गदर्शक है। कंकरों से युक्त मिट्टी घड़े के निर्माण की योग्यता तो रखती ही नहीं, फिर भी, कभी महीन होकर यदि वह घड़े की दीवारों में स्थान पा भी गई तो तपस्या की आँच में तपने की शक्ति नहीं रहने के कारण वह अवाँ में पकने के समय घड़े का ही व्यक्तित्व बिगाड़ देने का उपक्रम करती है। इसीलिए अपेक्षा इस बात की है कि व्यक्तित्व के विरोधी तत्त्वों से छुटकारा पाया जाय : "तुम में कहाँ है वह/जल-धारण करने की क्षमता ?/जलाशय में रह कर भी युगों-युगों तक/नहीं बन सकते/जलाशय तुम !/मैं तुम्हें हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा/परन्तु/पाषाण -हृदय अवश्य है तुम्हारा, दूसरों का दुःख-दर्द/देखकर भी /नहीं आ सकता कभी जिसे पसीना/है ऐसा तुम्हारा/ सीना !" (पृ. ५०) शिल्पी का कौशल भी महत्त्वपूर्ण है। इसी कौशल के कारण मिट्टी के विजातीय तत्त्वों का पता लगता है। जो घट निर्माण के अयोग्य हैं, वे मिट्टी में मिले हुए होकर भी मिट्टी की महत्ता प्राप्त नहीं कर सकते । अत: उनसे संकरदोष का प्रक्षालन आवश्यक है । इस संकर-दोष से उबरना सिद्धि का सोपान है, वर्ण का लाभ - प्राप्ति है। ___ अन्वेषण का महत्त्व निर्विकल्प रूप से है । अन्वेषणकर्ता किसी-न-किसी राह से चलकर राही की संज्ञा अवश्य प्राप्त करता है और 'राही' में साधना की जो लौ प्रदीप्त है, उसे विलोम रूप से एक दिन हीरा' अवश्य बना देगी। यह राह की साधना, साधना में आए कष्ट का सहना ही है जो अत्यन्त श्यामवर्ण काले पत्थर को विच्छित्तियों से भरा आकर्षक, लुभावन, महार्घ हीरा बना देता है । मिट्टी ने भी कंकरों से यही कहा है : "संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही/विलोम-रूप से कह रहा है -/रा"हो"ही"रा और/इतना कठोर बनना होगा/कि /तन और मन को/तप की आग में तपा-तपा कर/जला-जला कर/राख करना होगा/यतना घोर करना होगा तभी कहीं चेतन-आत्मा/खरा उतरेगा।" (पृ. ५६-५७) घट के भीतर योगों की खोज करनेवाली कवि-दृष्टि असीम समझे जाने वाले तत्त्वों को ससीम बना देती है। जो काल का चरण-निक्षेप है वह घट के भीतर मन्थन के रूप में सतत चलता रहता है । इस दृष्टि-भेद के फलक पर, विचार के इस कगार पर युगों का योग वाणी और आन्तरिक चिन्तन से मिल जाता है : "सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ/सत् को असत् मानने वाली दृष्टि स्वयं कलियुग है बेटा!" (पृ. ८३) महाकाव्य का दूसरा खण्ड ‘शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' निर्माण की दूसरी प्रक्रिया से प्रारम्भ होता है। मात्रानुकूलता और आनुपातिक योग ही जीवन की साधना को गन्तव्य तक ले जाते हैं। कुम्भकार और मिट्टी की वार्ता में जिस सहजता से प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध उजागर किया गया है, वह महाकाव्य में व्याप्त उस दृष्टि का परिचायक है जिसमें अत्यन्त पटुता के साथ लघुता से महत् की निष्पत्ति का आयोजन
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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