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110 :: मूकमाटी-मीमांसा है। कुम्भकार मिट्टी को उत्तर देता है :
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा
पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ. ९३) असावधान जीव अपने पतन का मार्ग स्वयं बनाता है, क्षत होने की सारी बाधाओं को मानो स्वयं आमन्त्रण देता है । जब स्वयं का यह अपराध स्वीकृति की शाण पर चढ़ता है तो आत्मा की विकास यात्रा प्रारम्भ होती है। मिट्टी बनाने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है और उसके माथे से रक्तधारा निकल पड़ती है । काँटा लघु चेतन प्राणी का प्रतीक बनकर बदले की प्रबल भावना में लिप्त होता है । इस प्रसंग पर कवि ने कई दृष्टान्तों के माध्यम से बदले की भावना को वह प्रचण्ड अनल बतलाने का उपक्रम किया है जिसमें काया ही नहीं, प्राण तत्त्व तक झुलसने लगते हैं। इसी अवसर पर पुरावृत्त का सहारा लेते हुए कवि ने बाली और दशानन के माध्यम से बदले की भावना को अधम बतलाया है।
इसी क्रम में भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य सभ्यता का तात्त्विक अन्तर बतलाते हुए कवि ने फूलों का ईश्वर के चरणों में चढ़ने का रहस्य उद्घाटित किया है :
"पश्चिमी सभ्यता/आक्रमण की निषेधिका नहीं है/अपितु ! आक्रमण-शीला गरीयसी है/जिसकी आँखों में/विनाश की लीला विभीषिका घूरती रहती है सदा सदोदिता/और/महामना जिस ओर अभिनिष्क्रमण कर गये/सब कुछ तज कर, वन गये नग्न, अपने में मग्न बन गये/उसी ओर" उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका भारतीय संस्कृति है/सुख-शान्ति की प्रवेशिका है। शूलों की अर्चा होती है,/इसलिए/ फूलों की चर्चा होती है। फूल अर्चना की सामग्री अवश्य हैं/ईश के चरणों में समर्पित होते वह परन्तु/फूलों को छूते नहीं भगवान्/शूल-धारी होकर भी। काम को जलाया है प्रभु ने/तभी "तो"/शरण-हीन हुए फूल
शरण की आस ले/प्रभु-चरणों में आते वह।" (पृ. १०२-१०३) दूसरे खण्ड में ही शब्द-बोध और शोध की सरिता में पाठकों को सन्तरण कराता हुआ कवि रचना-प्रक्रिया पर भी अपने विचार प्रकट कर देता है । रचना अतीत का पुनरवलोकन और सृष्टि की पुनस्सृष्टि है । इस क्रम में निरपेक्षता का जितनी दूर तक निर्वाह किया जाय, रचना उतनी ही महनीय होती है । भोक्ता और स्रष्टा का यह अन्तराल कृति को अधिक विश्वसनीयता और दीर्घजीवन प्रदान करता है । कवि का कथन है :
“प्रवचन-काल में प्रवचनकार,/लेखन-काल में लेखक दोनों लौट जाते हैं अतीत में।/उस समय प्रतीति में न रस रहता है/न ही नीरसता की बात, केवल कोरा टकराव रहता है/लगाव रहित अतीत से, बस!" (पृ. ११३)