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'मूकमाटी' : आधुनिक काव्य जगत् की अनुपम उपलब्धि
डॉ. विमलेश कुमार श्रीवास्तव
आचार्य श्री विद्यासागरजी की महनीय कृति 'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों की परम्परा में युगीन अपेक्षाओं के अनुरूप उच्च विभूतियों से सम्पन्न एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । प्रायः कहा जाता है कि कोई यदि उच्च कविता करना चाहता है तो उसे उच्च विषय का चयन करना चाहिए । परन्तु 'मूकमाटी' को महाकाव्य का विषय बनाया जाएगा, यह सामान्य धारणाओं के प्रतिकूल, किन्तु युगीन मान्यताओं के अनुकूल है। 'मूकमाटी' का शीर्षक देखकर इसकी कथा का अनुमान करना सहज नहीं है। आज का युग उपेक्षित मनुष्यता के उत्थान का युग है और 'माटी' को, वह भी 'मूकमाटी' को महाकाव्य की गरिमा देना तो और भी महनीय है।
आचार्यों ने महाकाव्य की गरिमा बनाए रखने के लिए अनेक प्रतिमानों की सृष्टि की है किन्तु ये प्रतिमान तो लक्ष्य ग्रन्थों के गुणों का सन्धान करके ही बनाए गए हैं। अतः कुछ वैसे भी काव्य होते हैं जो प्रतिमानों की सिद्ध परिपाटी पर नहीं चलते अपितु नए प्रतिमानों के जनक बनने का श्रेय प्राप्त करते हैं। यदि 'मूकमाटी' को उस कोटि में ही निबद्ध किया जाय तो कोई अतिरंजना नहीं होगी। 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' की तरह सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट् से विराट् को अपने में समाहित करनेवाला यह ग्रन्थ आत्म तत्त्व की उसी महत् विभूति से अलंकृत है ।
मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य अनादि काल से चलता आया है और जब तक दोनों हैं तब तक यह सम्बन्ध विच्छिन्न होने का कोई प्रश्न नहीं है। मिट्टी तो धरातल है जिस पर मनुष्य की सम्भावनाएँ, सभ्यताएँ और जीवन का वैभव खड़ा है । उसका अस्तित्व मिट्टी के साथ जुड़ा है । निसर्ग का सारा कर्म और व्यापार इसी धरा पर सम्पादित होता है। ऐसी धरती, जो सबको धारण कर सके, मिट्टी का पुंज है। वस्तुओं के नाम चाहे जो हों वे अपने मूलरूप में मिट्टी हैं । इस सत्य की सतह पर खड़े होने वाले मानव को प्रकृति के साथ निरन्तर सम्पर्क में रखने का उपक्रम मिट्टी की है । आकाश के नीचे जो घटित होता है वह धरती से कुछ छिपा नहीं है । इस व्यापक तथ्य का उद्घाटन करतीं 'मूकमाटी' की ये पंक्तियाँ :
से
" लज्जा के घूँघट में/ डूबती-सी कुमुदिनी / प्रभाकर के कर- छुवन बचना चाहती है वह;/अपनी पराग को - / सराग - मुद्रा कोपाँखुरियों की ओट देती है । / लो !· इधर ! / अध- खुली कमलिनी डूबते चाँद की / चाँदनी को भी नहीं देखती / आँखें खोल कर । ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना / सब के वश की बात नहीं,
और वह भी / स्त्री - पर्याय में - / अनहोनी सी घटना !" (पृ. २)
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धरती से आकाश तक की व्याप्ति को धरातल पर उतारने का प्रयास करने वाले कवि को कुछ ही पंक्तियाँ कहनी पड़ी हैं किन्तु, विराट् के साथ उदात्त अपनी गरिमा में आ बैठा है ।
खण्ड एक 'संकर नहीं: वर्ण - लाभ' के शीर्षक से घोषित है। अनमेल तत्त्वों का उपस्थापन साधना की बाधा है। जब तक उपासना के क्षेत्र में साधु अपने प्रयत्न से चोर को साधु की मुद्रा में नहीं ला देता है, उसे अत्यन्त सावधानी रखनी पड़ती है। यद्यपि इसमें सम्भावनाएँ अत्यन्त प्रबल हैं कि साधु की संगति से चोर साधुत्व यदि प्राप्त नहीं भी करे, साधुत्व के समीप तो आ ही जाता है । किन्तु कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि साधुत्व की कोमल खराद पर दुर्जन का भोथरा लोह शाणित नहीं होता । ऐसी अवस्था में शाण के बिगड़ने का भय रहता है । अत: ऐसी अनमेल स्थिति से छुटकारा ही