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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 107 किसलय के गीत के माध्यम से प्रकृति इसी आन्तरिक शृंगार के रस में छक कर लीन है। बीभत्स रस तो स्वयं शृंगार को नकार देता है । सब रसों की मूल जननी प्रकृति करुणा से युक्त है । वह सदैव करुणा की महत्ता उद्घोषित करती रहती : "सदय बनो !/ अदय पर दया करो / अभय बनो ! सभय पर किया करो अभय की / अमृत-मय वृष्टि सदा सदा सदाशय दृष्टि / रे जिया, समष्टि जिया करो !” (पृ. १४९ ) : करुणा भाव और शान्त रस का अन्तर बड़ी खूबी के साथ स्पष्ट किया गया है : “उछलती हुई उपयोग की परिणति वह / करुणा है / नहर की भाँति ! और/उजली-सी उपयोग की परिणति वह / शान्त रस है / नदी की भाँति ! नहर खेत में जाती है/ दाह को मिटाकर / सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है/ राह को मिटाकर / सुख पाती है।” (पृ. १५५ - १५६) वात्सल्य को महासत्ता माँ के गोल-गोल कपोल तल पर उद्भूत माना गया है। प्रकृति वात्सल्य के द्वारा ही सृष्टि को परिचालित करती है । शान्त रस की परिभाषा सर्वाधिक सटीक एवं 'मूकमाटी' के मूल प्रतिपाद्य से एकदम जुड़ी हुई " सब रसों का अन्त होना ही - / शान्त - रस है । / यूँ गुनगुनाता रहता सन्तों क अन्त: प्रान्त वह । / धन्य !” (पृ. १६० ) .. इस लेख के कलेवर के विस्तार भय से हम इतना ही कहकर इस प्रकरण को समाप्त करेंगे कि इसमें मन्त्रविद्या, बीजाक्षरों के चमत्कार, आयुर्वेद के प्रयोग तथा विज्ञान जन्य नूतन आविष्कार इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों की गहन जानकारी का परिचय मिलता है। जीवन की व्यापकता एवं विशालता को समेटने एवं उसके ज़ख़्मों पर मरहम रखने के लिए महाकवि में बहुज्ञता का होना आवश्यक है, क्योंकि महाकवि केवल गीति - काव्य नहीं रचता, केवल मुक्तक नहीं रचता, अपितु वह मानव मुक्ति के धवल मार्ग को सूर्य रश्मियों जैसी अपनी दूरदृष्टि से आलोकित करना चाहता है । 'मूकमाटी' कार इस निष्कर्ष पर खरे उतरते हैं। 'मूकमाटी' का अभिव्यक्ति पक्ष सबल ही नहीं, प्राणवान् है । भाषा पर आचार्यश्री का असाधारण अधिकार है । वे अपनी बात प्रभावशाली ढंग से चित्रोपम शैली में देने की कला में निष्णात हैं। व्युत्पत्ति और विलोम के उदाहरणों में कवि के भाषा-कौशल के धनी होने का जीवन्त प्रमाण मिलता है। माटी को नायक बनाकर लिखी गई यह कृति मूक नहीं है किन्तु गम्भीर और गहन अवश्य है । भौतिक रसों की खोज में भटकते भ्रमर-वृत्ति वाले हृदयों को शायद यह नीरस लगे । 'मूकमाटी' वह 'पाकेट बुक' नहीं है जिसे पढ़ने के बाद कोई पाकेट में रखना नहीं चाहता । यह वह कृति - रत्न है जिसे पूज्य मानकर हृदय के समीप रखा जाता है और ज्ञानकोष के रूप में मार्गदर्शन हेतु सदैव उलटा-पुलटा जाता है, पढ़ा जाता है, चिन्तन-मनन किया जाता है। विज्ञान के विनाशकारी युग में मुनि विद्यासागर जैसे भगीरथ द्वारा लाई गई 'मूकमाटी' जैसी ज्ञान गंगा परमावश्यक है । इसके द्वारा भाषा, समाज, देश और विश्व के विनाश को रोका जा सकता है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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