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मूकमाटी-मीमांसा :: xv
आ. वि.- हमें क्या करना है, कहाँ तक चलना है-वैसे करते चले जाएँ। यह आवश्यक है । जैसे, वर्तमान को लेकर
हम चलें। एक व्यक्ति तार के ऊपर चल रहा है। वह अतीत की ओर, पीठ की ओर नहीं देखता । इस प्रकार होने से भूत भी उसका गायब हो गया एवं वर्तमान की ओर भी वह देखता नहीं, लेकिन वर्तमान में ही वह
चल रहा है। पैर उसके वर्तमान हैं। प्र. मा.- भविष्य? आ. वि.- भविष्य आशात्मक नहीं है । पहुँचने रूप है । प्रति (हर) समय वह चल रहा है। इसलिए भविष्य उसका
निश्चित रूप से उज्ज्वल है । लोग उसे देखते रहते हैं और वह पार कर जाता है। प्र. मा.- मार्क्सवादियों का कहना है कि प्रतिक्षण जब आप एक-एक कदम चलते हैं तो आपका जो दाहिना पैर है वह
बाएँ पैर का निषेध है और जब अगला पैर चलेगा तब दाएँ पैर का निषेध होगा अर्थात् निषेध का निषेध,
नकार का नकार। आ. वि.- लेकिन हम दोनों पैर से नहीं चलते हैं, एक ही पैर से चलते हैं। दूसरा पैर हमारे लिए सहयोगी रहता है, वह
टिका हुआ रहता है। ये धन और ऋण हैं। प्र. मा.- यानी धन और ऋण दो अलग-अलग करंट नहीं हैं ? आ. वि.- अलग-अलग करंट नहीं हैं। वह दोनों की संयोजना है। करंट दोनों की संयोजना है। न केवल धन में करंट है
और न केवल ऋण में। प्र. मा.- उनका द्वन्द्व नहीं है। आ. वि.- नहीं, सहयोग है । दोनों पैर से हम चलेंगे तो हम 'लाँग जम्प' वाले कहलाएँगे या 'हाई जम्प' वाले
कहलाएँगे किन्तु 'वाकिंग' (walking) वाले नहीं कहलाएँगे। प्र. मा.- बहुत अच्छा । आ. वि.- एक पैर से ही चला जाता है और तब दूसरा पैर बैलेंस में रहता है। प्र. मा.- मैक्समूलर ने रामकृष्ण परमहंस पर जर्मन में एक पुस्तक लिखी है। उसमें बहुत अच्छा लिखा है । उसमें
लिखा है कि डायलेक्टिक (Dialectic) जो है या परस्पर द्वन्द्वात्मकता जो है, उसमें एक दूसरे को काटने की
बात है यानी नकार का नकार । भारतीय दर्शन में यह काट-पीट नहीं है, यहाँ मात्र Dialogue है। आ. वि.- हाँ संयोजन है, डायलेक्टिक नहीं है। जैसे खेत में बहुत-सा सस्य है। उसमें हवा बहती है, तब वह एक दूसरे
में संचार करती है, एक दूसरे को काटती नहीं। प्र. मा.- जैसे इकबाल ने कहा है : “जियो, मगर मौज़ों की तरह जियो।" एक लहर आती है वह दूसरी लहर को
काटती नहीं वरन् एक दूसरे को आगे बढ़ाती हुई आगे चली जाती है । आपका दर्शन भी इसी तरह सोचता
आ. वि.- जी हाँ! प्र. मा. - फिर भी मुझे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि यह काल का जो आपका अवबोध है, काल की जो आपकी परिकल्पना
है, उसका 'दिक् से यानी दिशा से क्या सम्बन्ध है और उन दोनों का काव्य से क्या सम्बन्ध है ? आ. वि.- दिशा एक प्रकार से “सही दिशा का प्रसाद ही/सही दशा का प्रासाद है।" (द्रष्टव्य, पृ. ३५२) प्र. मा.- वाह ! वाह !! 'मूकमाटी' में है यह ? आ. वि.- जी हाँ ! 'मूकमाटी' में है। यही दिशा है । दिक् का अर्थ दिशा नहीं, बोध है।