________________
xvi:: मूकमाटी-मीमांसा
प्र. मा.- तो फिर आप के चिन्तन में राष्ट्र शब्द नहीं आएगा ? क्योंकि राष्ट्र शब्द दिशा से बँधा है किसी सीमा में।
'किसी दिशा में - इसका अर्थ क्या होगा ? आ. वि.- राष्ट्र अपने यहाँ एक प्रकार से संयोजना जो कुछ बनती है, उसका नाम है । वही है देश । 'समाज' को केन्द्र
में रखकर जो विचारधारा बनती है वह है समाजवाद । समाज समूह अर्थ का वाचक है और समूह का अर्थ है-सम् यानी समीचीन रूप से ऊह अर्थात् विचार । मतलब जहाँ आचार-विचार समीचीन हों, वह है समाज । जो इस वाद में आस्था रखता है वह है समाजवादी । अन्यथा समाज तो बाद में है-हम समाजवादी
(पहले) हैं। प्र. मा.- बहुत अच्छा ! किन्तु देश-देश में आपस का जो वितण्डा या विखण्डन है, वह भी विचारणीय है इस सन्दर्भ
में । यह तो एक तथ्य या सत्य है कि भारत एक देश है। उसके आज तीन खण्ड हो गए हैं - भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश । यह विभाजन-जो दिक् से जुड़ा है वहाँ है या हमारे चिन्तन या अवधारणा में
है?
आ. वि.- हमारे विचारों में विघटन का नाम ही देश का विभाजन है । देश में कोई विभाजन हुआ ही नहीं। यह विचारों
___ का विघटन है। इस विभाजन को विचारों का ही विघटन बोला जाता है। प्र. मा.- विचारों का विघटन ! तो आपका क्या ख्याल है कि विचारों का यह विघटन समाप्त हो जायगा ? क्या सारी
दुनियाँ एक हो जायगी? आ. वि. - एक हो या न हो, एक होने की भावना या विचार हम रखेंगे तो निश्चित रूप से दूसरे में भी सम्भावना देख
सकते हैं। प्र. मा.- पहले भारत एक था । हम देख रहे हैं कि विखण्डन की क्रिया भयानक रूप से चल रही है । बढ़ रही है। देख
लीजिए- असम, पंजाब, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर आदि इसके उदाहरण हैं। आ. वि.- इसमें कारण एक मात्र है कि ऊपर से हम एकता भले चाहते हों लेकिन भीतर से नहीं चाहते । प्र. मा. - हाँ ! यह एकता का जो हम प्रचार आदि कर रहे हैं, यह सिर्फ प्रचार है।
अब, हम कविता की ओर आते हैं। काव्य दिक्-कालातीत होता है या दिशा और काल से बँधा होता है ? आ. वि.- कविता स्वाश्रित होती है । स्वायत्त होती है । इसका दिशा-काल से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्र. मा.- स्वाश्रित (होती है कविता) ! उसका क्या दिशा-काल से कोई सम्बन्ध नहीं? आ. वि.- कोई नहीं। प्र. मा. - पर उद्भूत तो होती ही दिशा में ही, दिशा-काल से ही। आ. वि. - 'स्व' में (या 'स्व' से) उद्भूत होती है। प्र. मा. - पर भाषा से तो बँधी है ? आ. वि.- हाँ! भाषा से बाँधना पड़ता है। जैसे जन्म होने के बाद आवरण या आभरण आ जाता है। प्र. मा.- भाषा तो दिगम्बर नहीं हो सकती । भाषा के साथ तो दिशा-काल बँधा है। आ. वि.- भाषा की परिभाषा भी एक प्रकार से दिगम्बर जैसी ही है। हम बना देते हैं तो बन जाती है, नहीं तो नहीं
है। भीतर से भाव यही है कि भाव हमेशा उत्पन्न होते रहते हैं और भावों को हमेशा व्यवस्थित रखने के लिए भावों को, भाषा को अपनाना पड़ता है । वह अपनाना कहाँ तक है, यह आप ही जानें । पर हमारा राजकुमार तो राजकुमार ही है, रूपवान् है। बाद में भले ही वस्त्र रख दो तो रख दो, नहीं भी रखो तो हमारा