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102 :: मूकमाटी-मीमांसा
उस जल में रहते अनेक जलचर जीव/ लगी चोट के कारण / अकाल में ही मरेंगे, इस दोष के स्वामी/ मेरे स्वामी कैसे बन सकते हैं ?
(पृ. ६५)
बालटी कुएँ में उतरी तो आत्म-तत्त्व की ज्ञाता संकल्पिता मछली को वह किसी अवतारी पुरुष की तरह लगी। अन्य मछलियाँ भोजन की आशा में उसकी ओर दौड़ीं और उसे रिक्त पा निराश हो गईं। संकल्पिता मछली को उस बालटी पर 'धम्मो दयाविसुद्धो' तथा 'धम्मं सरणं गच्छामि' जैसे सूत्र अंकित दीख पड़े । वह मछली उसमें प्रवेश कर मानो मोक्ष पा जाती है । अन्य मछलियाँ उसकी जय जयकार करती हैं । बालटी में प्रविष्ट वह मछली ऊर्ध्व संचरण करती हैहठयोगी की तरह। मछली के रूप में सिद्ध पुरुष की दशा का कितना मनोज्ञ चित्रांकन है :
" तैर नहीं रही मछली । / भूल- सी गई है तैरना वह, स्पन्दन-हीन मतिवाली हुई है / स्वभाव का दर्शन हुआ, कि क्रिया का अभाव हुआ-सा / लगता है अब..!
अमन्द स्थितिवाली होती है वह !" (पृ. ७८)
'मूकमाटी' के महाकाव्यत्व के बारे में सन्देह किए जाने की सम्भावना है, क्योंकि किसी विधा के परम्परागत स्थूल लक्षणों के आधार पर उस विधा की नूतन कृति को परखने की गलत परम्परा हमने डाल रखी है । विधा की परम्परागत रूढ़ियों को तोड़ने वाली कृति का सम्पूर्ण ढाँचा नया होता है। वह एक इमारत के समान दूसरी इमारत बनाने की क्रिया नहीं है । उसमें रचनाकार का सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उसका परिवेश, उसका युग रूपायित होता है। 'मानस' की अनुकृति ‘साकेत’ नहीं है, ‘साकेत' की अनुकृति 'कामायनी' नहीं है और 'कामायनी' की अनुकृति 'मूकमाटी' नहीं है । लक्षण-ग्रन्थ कुछ भी कहें, महाकाव्य का फलक बहुत व्यापक होता है, उसमें कवि का अपना जीवन-बिम्ब होत है, अपनी दृष्टि होती है । सम्पूर्ण विराट् जीवन और सृष्टि के सम्बन्ध में उसमें गहन चिन्तन होता है। युग के समक्ष उपस्थित संकट से निगाहें न चुराकर महाकाव्य उससे टकराता है । 'मूकमाटी' इस निकष पर खरी उतरती है । आतंकवाद आज की ज्वलन्त समस्या है। भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व उसकी गुंजलक में फँसा हुआ है। 'मूकमाटी' का रचनाकार भी इस ओर पूरा ध्यान देता है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद / शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह, / ये आँखें अब / आतंकवाद को देख नहीं सकतीं, ये कान अब / आतंक का नाम सुन नहीं सकते ।” (पृ. ४४१)
आतंकवाद क्रोध पर आधारित है। क्रोध करनेवाला अन्यों को ही नहीं, स्वयं को भी हानि पहुँचाता है :
“जिसे सर्प काटता है/ वह मर भी सकता है / और नहीं भी, उसे जहर चढ़ भी सकता है / और नहीं भी, / किन्तु काटने
बाद सर्प वह / मूर्च्छित अवश्य होता है ।” (पृ. ४१६ )
एक जमाना था कि 'साम्यवाद' और 'समाजवाद' को ढोल बजा बजा कर चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में जनमानस पर प्रतिष्ठित किया जाता था । 'समाजवाद' की दुरंगी नीति का मुलम्मा निकल चुका है और 'साम्यवाद' की भव्य इमारत घर-घराकर गिर रही है। आचार्यश्री ने समाजवाद का रामनामी दुपट्टा ओढ़नेवालों की रंगे सियारवाली