SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' : आचरण की शुचिता का महाकाव्य __डॉ. सरजू प्रसाद मिश्र आचार्य श्री विद्यासागरजी कवि होकर भी कवि-समाज से ऊपर हैं, जैसे चन्दन वृक्ष होकर भी तरु-समाज से ऊपर है, क्योंकि वह अपने शीतलता के गुण को कभी नहीं छोड़ता । तुलसीदासजी ने कहा है : “सन्त हृदय नवनीत समाना।" आचार्यश्री ने अपने हृदय के नवनीत को 'मूकमाटी' नामक काव्य कृति में संचित किया है, जिसके सेवन (अध्ययन-मनन) से विकारयुक्त हृदय शुद्ध स्वर्ण बन सकते हैं और भौतिकता के पंक में फँसी सृष्टि अपना कायाकल्प कर सकती है। हिन्दी के तीन अमर महाकाव्यों 'पदमावत, 'रामचरितमानस' और 'कामायनी' की उज्ज्वल परम्परा में एक महाकाव्य और आ जुड़ा है और वह है 'मूकमाटी' । 'रामचरितमानस' में रामभक्ति की महिमा के वर्णन के साथ ही साथ गोस्वामीजी ने मर्यादा-रक्षण और आचार-विचार की संगति पर जोर दिया है। धर्म को व्यापक आयाम प्रदान किया गया है। व्यक्ति-धर्म से प्रारम्भ करके विश्वधर्म की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचा गया है । 'पदमावत' प्रेम की पीर के माध्यम से ईश्वर को पाने की साधना का अन्योक्तिपरक महाकाव्य है। 'कामायनी' हृदय और बुद्धि, इच्छा, क्रिया और ज्ञान, भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास है । 'मूकमाटी' इस परम्परा में एक नई कड़ी जोड़ती है । वह आध्यात्मिकता की व्याख्या करती है। आध्यात्मिकता की बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन आध्यात्मिकता क्या है, इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर 'मूकमाटी' में है । आचार्यश्री इस सफलता के लिए साधुवाद के पात्र हैं। आध्यात्मिकता क्या है ? आचरण की शुचिता । दलित द्राक्षा-सा स्वयं को परहित के लिए निचोड़ देना। आचरण की शुचिता के बिना कोई भी सन्त, महात्मा और भगवान् नहीं हो सकता । इस बात को श्री विद्यासागरजी ने माटी, शिल्पी, सेठ, कुम्भ तथा कनक-कलश आदि को लेकर खड़ी की गई सूक्ष्म-सी कथा के माध्यम से कहा है : ० "राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा 'ख'ख रा आशीष के हाथ उठाती-सी/माटी की मुद्रा/उदार समुद्रा।” (पृ. ५७) “मन्त्र न ही अच्छा होता है/ना ही बुरा/अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है/स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है और/अस्थिर मन ही/पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है/एक दुःख का सो पान है।” (पृ. १०८-१०९) जितेन्द्रिय, संयमी, निरभिमानी, यश-कीर्ति के प्रति उदासीन, परोपकारी सन्त ही आध्यात्मिक कहा जा सकता है। समाज यदि उसका अनुकरण करे तो अपने रोगों से मुक्त हो सकता है। छोटे से छोटे प्रसंग को भी इस महाकवि ने गहन एवं उपादेय वचनों से चित्रित किया है। उदाहरणत: शिल्पी बालटी रस्सी में बाँधकर कुएँ में डालना चाहता है, माटी को भिगाने के लिए जल प्राप्त करने के लिए। रस्सी में गाँठ पड़ जाती है। वह गाँठ को प्रयत्नपूर्वक खोल डालता है । रस्सी रसना से पूछती है कि गाँठ से आपके स्वामी को क्या बाधा थी ? रसना उत्तर देती है कि मेरे स्वामी अहिंसा-प्रिय हैं। यदि गाँठ खोले बिना जल भरी बालटी खींची जाती तो गाँठ गिर्रा पर गिरती, रस्सी गिर्रा में फँसती और परिणाम स्वरूप: "बालटी का बहुत कुछ जल/उछलकर पुनः/कूप में जा गिरेगा
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy