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'मूकमाटी' महाकाव्य : एक कालजयी रचना
पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय जैन दर्शन के महान् चिन्तक, विचारक, तपस्वी आचार्य विद्यासागरजी महाराज मुक्त चिन्तन करने वाले मुक्त पुरुष हैं। ऐसे मुक्त पुरुष द्वारा 'माटी' जैसी तुच्छ वस्तु के माध्यम से महाकाव्य की रचना करना एक दुर्लभ कार्य
जिसने माटी की महिमा को पहचाना, माटी के नए-नए रूपों के दर्शन किए, माटी की तपस्या, साधना को समझा, जिसने माटी की उर्वरता, जीवन्तता, रूप, रस तथा गन्ध का आस्वादन किया, जिसने उसकी व्यथा को वाणी प्रदान की, वही तो सच्चा सन्त, सच्चा साहित्यकार या सच्चा कवि है।
हमारा शरीर स्वयं माटी का घट है । जीवन की भट्टी में तपकर ही वह पूर्ण कुम्भ का आकार ग्रहण करता है।
मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। इसमें उसे होता, समिधा, आहुति और पूर्णाहुति की भूमिका निभानी होती है। इसमें आदमी पहले जंगल से लकड़ियाँ लाकर उनकी समिधा बना आहुति देकर अग्नि प्रज्वलित करता है, फिर अपने पवित्र कर्मों की निष्काम आहुतियाँ देकर घर-परिवार का मांगल्य न्योतता है। और अन्त में स्वयं समिधा बनकर यज्ञ में अपनी पूर्णाहुति देकर उसे सम्पूर्णता प्रदान करता है । आज कौन है जो बेज़बान की ओर से बोलता है यानी झाड़ की तरफ से बोलता है, पहाड़ की तरफ से बोलता है, फूल और फसलों की तरफ से बोलता है, मूकमाटी की तरफ से बोलता है ? जो इनकी तरफ से बोलता है वही सच्चा सन्त है, ऋषि है, कवि और नई सृष्टि का रचयिता है।
___आचार्यजी ने एक उपन्यास की तरह माटी और कुम्भकार का रिश्ता सँजोया है । कुम्भकार पहले माटी से कंकरों को अलग कर मनुष्य की कमज़ोरियों को हटा उसे शुद्ध, मृदु, मुलायम रूप देकर फिर उसे कर्म के चक्के पर चढ़ाकर एक सम्पूर्ण कुम्भ, कलश का निर्माण करता है । लेकिन जब तक संघर्ष की आग में तपकर मनुष्य खरा नहीं उतरता, तब तक उसका जीवन स्वर्ण कलश की तरह चमक नहीं पाता । अतएव कुम्भकार उसे जीवन की अग्नि में तपाकर परिपक्वता प्रदान करता है । ऐसी तपस्या से निर्मित घट ही जीवन के जल से अमृत की तरह भरकर छलकता आया है।
हमारा सम्पूर्ण जीवन माटी की व्यथा कथा है । कहते हैं माटी ही नित्य नए-नए रूप धरते आई है । फूल से पूछा-"तुम्हें सौन्दर्य एवं सुगन्ध कहाँ से मिली ?" बोला-"माटी से पूछो । उसी ने मुझे रूप, रस, सुगन्ध प्रदान की।" मनुष्य से पूछा-"तुम्हें चारित्रिक सुगन्ध कहाँ से मिली ?" बोला-"माटी से पूछो । उसकी मौन तपस्या ने मुझे आचरण के माध्यम से बोलने की चारित्रिक सुगन्ध प्रदान की।" सोचता हूँ :
"देखा है फूल/नहीं देखी गन्ध/जिया हूँ उसे।" मूकमाटी के माध्यम से फसलें गातीं हैं, गुनगुनाती हैं, झरने संगीत का स्वर सुनाते हैं और वायु में प्राणों का स्पन्दन सुना जा सकता है।
कहते हैं पहले शून्य था। शून्य में से आकाश जन्मा, आकाश से वायु और वायु से अग्नि उत्पन्न हुई । अग्नि की गरमी से जल बना और जल में से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । पृथ्वी पर वृक्ष, वनस्पति, अन्न उत्पन्न हुआ और उससे मनुष्य का जन्म हुआ। आदमी माटी से जनमा, माटी में पला और माटी में विलीन हो गया। यही मूकमाटी की व्यथा-कथा है।