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________________ 98 :: मूकमाटी-मीमांसा "अपराधी नहीं बनो/अपरा ‘धी' बनो,/'पराधी' नहीं पराधीन नहीं/परन्तु/अपराधीन बनो !" (पृ. ४७७) संस्कृत भाषा का गम्भीर ज्ञान के बिना ऐसे प्रयोग सम्भव नहीं हैं। और ऐसा प्रयोग मात्र एक बार नहीं काव्य के आद्योपान्त सर्वत्र बलात् हमारी दृष्टि आकृष्ट करते हैं। नि:संशय, इस काव्य में रचयिता द्वारा हिन्दी भाषा के क्षेत्र में अनेक नवीन शब्दप्रयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। साधकज्ञानी के रूप में मनुष्य का आकलन बाहर से सम्भव नहीं है, वह साधक के सर्वस्व-त्याग की निश्छलता से सिद्ध होता है । परन्तु कवि के रूप में आचार्य विद्यासागर हमारे सादर श्रद्धा के पात्र हैं, जिन्होंने मानव जीवन की सफलता के मार्ग में मृत्कुम्भ से मंगलमय जलसिंचन किया है। हमारी यह श्रद्धा और भी गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि कितने अनायास गम्भीरतम दार्शनिक सिद्धान्तों को कवि ने समावेशित किया है । ज्ञान की पूर्णता कवि वाणी में अनायास विलसित हुई है । ज्ञानी तथा कवि दोनों रूपों में आचार्य विद्यासागर स्तुत्य हैं। 'मूकमाटी' : धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सार डॉ. हरि नारायण दीक्षित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज प्रणीत 'मूकमाटी' विशिष्ट एवं अद्भुत रूपक महाकाव्य न केवल विषय वस्तु एवं प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से सहृदय पाठकों को चमत्कृत करने में सक्षम है, अपितु समसामयिक सन्दर्भो की पृष्ठभूमि में धर्म, दर्शन तथा अध्यात्म के सार को प्रस्तुत करके कवि की मौलिक दृष्टि का भी प्रमाण देता है । मूक, निरीह किन्तु ध्रुव सत्ता सम्पन्न मिट्टी को महाकाव्य का विषय बनाकर आचार्यश्री ने एक नई दृष्टि से मानव मूल्यों को स्थापित किया है । इस रचना के लिए आचार्यश्री साधुवाद के पात्र हैं। मनोरम काव्य शैली में निबद्ध, कथा-कहानी की रोचकता से सम्पन्न इस महाकाव्य में धर्म, दर्शन जैसे दुरूह विषयों को रुचिकर प्रसंगों द्वारा सरलता से ग्राह्य बनाया गया है। प्रधानत: शान्त रस का निरूपण किया गया है; प्रकृति के विविध रूपों को प्रस्तुत किया गया है तथा सम्प्रेषणीय भाषा-शैली में विविध छन्दों और अलंकारों की छटा से निखरे हुए इस महाकाव्य को सहज ग्राह्य, भावाभिव्यक्ति में समर्थ भाषा में प्रस्तुत किया गया है । यही नहीं, भारतीय संस्कृति के मूल मन्त्र-सबके सुख, कल्याण की कामना-को प्रस्तुत महाकाव्य में अभिव्यक्त किया गया है। BHARA पृष्ठ ३७० लो, दीपल की लाल लौ.... ...समग्रतासे साक्षात्कार
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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