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दार्शनिक विचार बीजों का पल्लवन : 'मूकमाटी' महाकाव्य
डॉ. विश्वनाथ भट्टाचार्य आचार्य विद्यासागर रचित 'मूकमाटी' एक सुबृहत् महाकाव्य है। चार खण्डों में, प्रवहमान स्वच्छन्द शैली में, सर्वस्व-त्यागी जैन मुनि ने इस महाकाव्य की रचना की है । कवि का साधक चरित्र इस महाकाव्य के रसास्वादन में विशेष महत्त्व रखता है । सार्थक काव्य यद्यपि कवि की अपनी सीमाओं से बँधा नहीं रहता, फिर भी कवि की विश्वदृष्टि काव्य का मूलस्रोत होती है । इसी दृष्टि से इस महाकाव्य के विवेचन में कवि के साधक चरित्र का ध्यान रखना आवश्यक
है।
मूक को मुखर बनाने की शक्ति एकमात्र कवि को है और कदाचित् परमेश्वर को । कवि यह कार्य स्वेच्छा से करता है और परमेश्वर को साधना की अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि भारत की मान्यता है कि "अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः” – समग्र काव्य संसार का नियन्त्रण कवि की कल्पनाशक्ति का विलास है।
निर्ग्रन्थ हो कर आत्मसाक्षात्कार के परमानन्द में रमने की उत्कट अभिलाषा जिस साधक को हो, वह यदि कवि हो जाए तो कैसा काव्य लिखेगा ? इसी प्रश्न का एक उत्तर 'मूकमाटी' है । सब कुछ छोड़ कर ही सर्वस्व की प्राप्ति सम्भव है। इस आपात-विरोधी परम सत्य को कवि वास्तविकता में प्रतिष्ठित करने की शक्ति रखता है । जो जैसा है उसे वैसा ही रखकर उसमें कवि नया प्राण फूंकता है, नए धरातल पर उसकी निगूढ़ यथार्थता को उजागर करता है और जो अब तक अज्ञात था, दबा था, मूक था, उसे मुखर बना देता है।
___ 'मूकमाटी' में कवि ने समग्र विश्व-प्रपंच को एक शृंखलित रूपक के माध्यम से दिखाया है। कवि का उद्देश्य रससृष्टि नहीं है । वह तो महाकवि अश्वघोष की भाँति कह सकता है : “इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भा कृतिः।" रति से विरति और विरति से समग्र को आत्मीय बनाने की ओर कवि अग्रसर हैं।
माटी से कुम्भकार कुम्भ बनाता है । आग में तप कर वह विश्व को निर्मल जल पिला कर धन्य करता है और मृत्कुम्भ के सामने स्वर्ण आदि से बना महामूल्य कुम्भ व्यर्थ है – मोटे तौर पर यही काव्य का मूलभूत रूपक है। 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'-कवि ने चार खण्डों के ये अत्यन्त सार्थक शीर्षक दिए हैं। वर्ण-लाभ से जिस गति का प्रारम्भ होता है उसकी परम परिसमाप्ति राख में है। सभी पदार्थ प्रतीकात्मक होने से वर्ण केवल रंग ही नहीं है और राख भी सामान्य राख नहीं, अपितु वासनाओं को अग्निसात् कर परिणामत: निर्मल 'चाँदी-सी राख' है, यह सहृदयों को कहने की जरूरत नहीं है । वस्तुत: कवि के रूप में इतनी विस्तृत, बहुमुखी रूपककल्पना का पूर्णांग निर्वाह कवि की असाधारण कवित्वसिद्धि का प्रमाण है।
कुम्भ के प्रतीक के द्वारा मानव जीवन का चित्रण बारहवीं शती के फारसी कवि और गणितज्ञ उमर खय्याम ने भी अपनी रुबाइयों में किया है, पर दृष्टिभेद के कारण फारसी कवि ने कुम्भ को निष्प्राण तथा भाग्यताड़ित असहाय वस्तु के रूप में देखा है जब कि तपस्वी कवि ने उसे माटी से लेकर प्राणप्रद, जलदान के पुण्य से परम प्राप्ति के मार्ग पर प्रतिष्ठित कर दिया है । दार्शनिक विचार-बीजों का कवित्व की भूमि में यह पल्लवन काव्य का महाकाव्यत्व और कवि की क्रान्तदर्शिता को सुस्पष्ट रूप में सूचित करता है।
कवि विद्यासागर की भाषाशैली विशेष रूप से प्रशंसनीय है । शब्दों के प्रयोग में वे निष्णात ही नहीं अपितु चौंका देने वाली कुशलता का प्रदर्शन करते हैं।