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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 91 यहाँ केवल शब्द को उलटने का चमत्कार है । संयम के राही के साथ हीरा बनने के समर्थन में जो राही शब्द के उलटने से हीरा शब्द बन जाने की युक्ति दी गई है वह युक्तिसंगत नहीं है। इस युक्ति से तो असंयम की राह का राही बनने को भी हीरा बनना कह सकते हैं। क्योंकि 'राही' शब्द चाहे संयम के साथ जोड़ा जाय, चाहे असंयम के साथ 'हीरा' अर्थ ही निकलेगा। इसी प्रकार ‘राख' शब्द को उलटने से 'खरा' शब्द बनता है। इससे यह अर्थ निकाला गया है कि राख बने बिना कोई खरा नहीं बन सकता : "खरा शब्द भी स्वयं/विलोमरूप से कह रहा है-/राख बने बिना खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा"।" (पृ. ५७) ऐसे अनेक उदाहरण हैं : याद-दया, नदी-दीन, लाभ-भला, नाली-लीना, रसना-नासर, धरती-तीरध, चरण-न रच, तामस-समता, धरणी-नीरध आदि । इसी प्रकार शब्दभंग या वर्णव्यत्यय के द्वारा भी शब्द के नए-नए अर्थ निकाल कर चमत्कार दर्शाया गया है और स्वाभिप्रेत भाव का समर्थन किया गया है । उदाहरणार्थ : 'कृपाण' शब्द से 'ण' वर्ण को दूर कर ‘कृपा न' बनाते हुए कृपाण का कृपा रहित अर्थ सिद्ध किया गया है : "कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं हम हैं कृपाण/हम में कृपा न!" (पृ. ७३) इसी प्रकार ‘आदमी' शब्द के 'आ' को दूर कर ‘आ दमी' रूप दर्शाते हुए आदमी का अर्थ 'आ समन्तात् दमी' अर्थात् पूर्ण संयमी प्रतिपादित किया गया है। इसके भी अनेक उदाहरण हैं : नमन-न मन, कायरता-काय रता, करण-कर न, चरण-चर न, रसना-रस ना, पायसना-पाय सना, धोखा दिया है-धो खा दिया है, मदद- मद द, वासना-वास ना इत्यादि । शब्दों के ऐसे तोड़-मरोड़ द्वारा नए-नए अर्थ निकालने से पाठकों का पहेलियों जैसा मनोरंजन तो होता है, किन्तु इसे काव्य नहीं कर सकते । काव्य तो सहृदयहृदयाह्लादक रसात्मक उक्ति का नाम है। उपर्युक्त शब्दलीला से प्राप्त होने वाला आनन्द प्रहेलिकानन्द है, काव्यानन्द नहीं। कवि को यमक और श्लेष से युक्त प्रहेलिकात्मक वाक्यों की योजना में भी आनन्द आता है। कुम्भ पर अंकित होने का बहाना लेकर प्रहेलिकावत् तीन वाक्य प्रस्तुत किए गए हैं और उनका रहस्य खोला गया है । वे वाक्य हैं - ‘कर पर कर दो, ‘मर हम मरहम बनें' और 'मैं दो गला' । सन्त कवि जब उनका आशय खोलते हैं तब वैसा ही मज़ा आता है जैसा पहेलियों का अर्थ समझने पर आता है। अर्थात् यहाँ काव्य रस की अनुभूति न होकर प्रहेलिकारस की अनुभूति होती है । पहेलिकाएँ काव्य नहीं हैं। अयुक्तिसंगत निरुक्तियाँ: कवि की रुचि का एक अन्य विषय है शब्दों की बुद्धि में न बैठने वाली विचित्र निरुक्तियाँ जिन्हें पढ़ते वक्त मनोविनोद तो होता है, रसानुभूति नहीं होती। नारीवाचक शब्दों की कवि ने बड़ी मज़ेदार निरुक्तियाँ की हैं। वह आरी नहीं है सो नारी है। संग्रहणी के रोगी को मही अर्थात् मठा-महेरी पिलाती है इसलिए महिला कहलाती है। वह बला (संकट) नहीं है इसलिए अबला है। 'कु' यानी पृथिवी, 'मा' यानी लक्ष्मी और 'री' यानी देनेवाली अर्थात् धरती को लक्ष्मी से सम्पन्न करती है इसलिए कुमारी कहलाती है । 'स्' यानी संयम, 'त्री' यानी धर्म-अर्थ-काम- इन में पुरुष को कुशल बनाती है सो स्त्री कहलाती है । मैं केवल अंग नहीं हूँ, अंग के अतिरिक्त भी कुछ हूँ-पुरुष को यह उपदेश
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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