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मूकमाटी-मीमांसा :: 89
“सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं,/जितना मना किया जाता उतना मनमाना होता है/पाल्य दिशा में। त्याज्य का तजना/भाज्य का भजना, सम्भव नहीं/बाल्य-दशा में।
तथापि जो कुछ पलता है/बस, बलात् ही भीति के कारण !" (पृ. ३४१) पूर्ववर्णित सभी सूक्तियाँ मनोवैज्ञानिक तथ्यों का साक्षात्कार कराती हैं। प्रवचनकला के सुन्दर निदर्शन : कुम्भ पर अंकित सामग्री के दृष्टान्तों के द्वारा अनेक दार्शनिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को हृदयंगम बनाया गया है । इनसे आचार्यश्री का अप्रतिम प्रवचनकौशल परिलक्षित होता है, यद्यपि यह काव्य की सीमा में नहीं आ सकता।
'मूकमाटी' में जितना काव्यांश है वह उत्तम काव्य के इन गुणों से विभूषित है। शेष अंश अनेक काव्य-दोषों से ग्रस्त है जिनके कारण वह काव्यत्व से दूर चला गया है । सम्यक् समीक्षण के लिए उन्हें भी उजाले में लाया जा रहा है। विधागत अनौचित्य : विधा की दृष्टि से यह कृति न तो अन्योक्ति (प्रतीकात्मक काव्य) की कोटि में आती है, न निजोक्ति की। जब तिर्यंच या जड़ के धर्म का वर्णन किया जाय और उससे मानव-धर्म की प्रतीति हो तब अन्योक्ति होती है । जब तिर्यच या जड़ पर मानव-धर्म का आरोप किया जाय और उससे तिर्यंच या जड़ के ही धर्म की व्यंजना हो तब निजोक्ति होती है। यदि तिर्यंचादि पर मानवधर्म का आरोप किसी व्यंग्यार्थ में पर्यवसित नहीं होता तो यह एक असंगत कथन मात्र रहता है । एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म का आरोप बिना किसी साधर्म्यादि सम्बन्ध के तथा अर्थविशेष की व्यंजना के प्रयोजन के बिना नहीं किया जाता।
'मूकमाटी' में तिर्यंचादि के धर्मों के वर्णन द्वारा मानवधर्मों की प्रतीति नहीं कराई गई है, इसलिए यह अन्योक्ति नहीं है। तिर्यंचादि पर मानवधर्मो के आरोप द्वारा तिर्यंचादि के ही धर्मों की व्यंजना नहीं की गई है, इसलिए यह निजोक्ति नहीं है । इसमें तिर्यंचों और जड़ पदार्थों पर मानवधर्मों का आरोप है, किन्तु साधर्म्यादि सम्बन्ध पर आश्रित न होने से निराधार है तथा अर्थविशेष का व्यंजक न होने से निष्प्रयोजन है । माटी आदि के मुख से जो जीवादि तत्त्वों की मीमांसा
और मोक्षमार्ग का उपदेश कराया गया है उससे उन पर जैनाचार्यों और जैन तत्त्वज्ञानियों का आरोप हो जाता है। किन्तु माटी आदि में ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जो जैनाचार्यों और जैन तत्त्वज्ञानियों के धर्म से समानता रखता हो, जिसके कारण उन पर यह आरोप संगत हो सके और आरोप के द्वारा उस धर्म का वैशिष्ट्य व्यंजित हो सके । अत: यह आरोप असंगत ठहरता है । बिना किसी व्यंग्यार्थ के माटी, मछली आदि को जैन तत्त्वज्ञानियों और आचार्यों जैसी तत्त्वमीमांसा और मोक्षमार्ग की देशना करते हुए स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रत्यक्षतः असम्भव है। असंगत बात बुद्धिग्राह्य नहीं होती, फलस्वरूप सहृदयहृदयाह्लादक न होने से काव्य नहीं कहला सकती।
माटी आदि पदार्थों को जैनाचार्यों या जैन उपदेशकों का प्रतीक नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें ऐसे कोई स्वाभाविक या सन्दर्भजन्य धर्म नहीं हैं जो जैनाचार्यों और जैन उपदेशकों के धर्मों को लक्षित कर सकें।
प्रस्तुत कृति में तिर्यंचों और जड़ पदार्थों के द्वारा उनकी प्रकृति से सर्वथा असम्बद्ध (साधर्म्य आदि किसी भी सम्बन्ध से संगत न होने वाले) मोक्षमार्ग के सिद्धान्तों की मीमांसा तथा देशना कराई गई है। धरती यह बतलाती है कि कर्मों का संश्लेष और विश्लेष कैसे होता है (पृ. १५)। मछली माटी से सल्लेखना माँगती है । माटी सल्लेखना की व्याख्या करती है कि काय और कषाय को कृश करना सल्लेखना है (पृ. ८७)। वह प्रतिशोध भावना के दोषों और क्षमा के गुणों पर प्रकाश डालती है (पृ. ९७-१०५) । काँटा मोह और मोक्ष का लक्षण जानना चाहता है और लक्षण जानकर बड़ा सन्तुष्ट होता है। शिल्पी का धन्यवाद करता है (पृ. १०९-११२) ।