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मूकमाटी-मीमांसा :: 87
शब्दालंकारों में यमक के एक-दो सुन्दर उदाहरण हैं, जिनमें स्वाभाविकता के कारण अर्थवैभिन्यगत वैचित्र्य रोचक बन पड़ा है :
"कभी हार से/ सम्मान हुआ इसका,/कभी हार से
अपमान हुआ इसका।” (पृ. १४६) प्रथम 'हार' का अर्थ है 'फूलों का हार', द्वितीय का ‘पराजय' । ललित वर्ण विन्यास : संगीतात्मकता भी काव्य का एक गुण है । ललित वर्ण विन्यास के द्वारा इसका आविर्भाव होता है। सन्त कवि इसके अत्यधिक प्रेमी हैं। वर्णों की आवृत्ति के द्वारा उन्होंने संगीतात्मक सौन्दर्य उत्पन्न करने का बहुश: प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं इसके सुन्दर उदाहरण मिलते हैं, यथा :
0 “खरा भी अखरा है सदा।” (पृ.८३) 0. “तन में चेतन का/चिरन्तन नर्तन है यह।” (पृ. ९०) . “काया तो काया है/जड़ की छाया-माया है।" (पृ. ९२) 0 "श्वास का विश्वास नहीं अब।” (पृ. ९६) 0 “नग्न, अपने में मग्न बन गये।” (पृ. १०३)
0 “अहित में हित/और/हित में अहित/निहित-सा लगा इसे।” (पृ. १०८) रसात्मकता : महाकवि ने विभिन्न रसों के पुट से काव्य में कहीं-कहीं रस भरने का प्रयत्न किया है। आरम्भ में ही सूर्य
और प्राची, प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा और ताराओं पर नायक-नायिका-व्यापार के आरोप द्वारा श्रृंगार रस की व्यंजना की है । अन्तिम खण्ड में भी निम्न पंक्तियाँ शृंगार रस की सामग्री प्रस्तुत करती हैं :
"बाल-भानु की भास्वर आभा/निरन्तर उठती चंचल लहरों में उलझती हुई-सी लगती है/कि/गुलाबी साड़ी पहने
मदवती अबला-सी/स्नान करती-करती/लज्जावश सकुचा रही है।” (पृ. ४७९) प्रस्तुत अंश वात्सल्य रस के विभावों और अनुभावों से परिपूर्ण है :
"और देखो ना !/माँ की उदारता-परोपकारिता अपने वक्षस्थल पर/युगों-युगों से "चिर से दुग्ध से भरे/दो कलश ले खड़ी है क्षुधा-तृषा-पीड़ित/शिशुओं का पालन करती रहती है और/भयभीतों को, सुख से रीतों को
गुपचुप हृदय से/चिपका लेती है पुचकारती हुई।” (पृ. ४७६) भक्ति रस का अतिरेक निम्न पंक्तियों से छलकता है :