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86 :: मूकमाटी-मीमांसा
"प्रभाकर का प्रवचन यह/हृदय को जा छू गया
छूमन्तर हो गया, भाव का वैपरीत्य।” (पृ.२०७) 'हृदय को जा छू गया' मुहावरा प्रवचन की प्रभावशालिता तथा 'छूमन्तर हो गया' मुहावरा विपरीत बुद्धि के एकदम दूर हो जाने के भाव को कितने मनोहर ढंग से सम्प्रेषित करते हैं।
"जब आँखें आती हैं."तो/दु:ख देती हैं, जब आँखें जाती हैं तो दुःख देती हैं !/...कहाँ तक और कब तक कहूँ,
जब आँखें लगती हैं "तो/दुःख देती हैं।” (पृ. ३५९-३६०) यहाँ भी मुहावरों के द्वारा अभिव्यक्ति की हृदयालादकता उत्कर्ष पर पहुंच गई है।
औचित्यपूर्ण उपचारवक्रता : अचेतन पर चेतन के, चेतन पर अचेतन के, मूर्त पर अमूर्त के, अमूर्त पर मूर्त के, मानव पर तिर्यंचादि के, तिर्यंचादि पर मानव के धर्म का आरोपण उपचारवक्रता कहलाता है । यह वस्तु के गुणोत्कर्ष, भावों के अतिशय, उत्कटता, तीक्ष्णता, घटनाओं और परिस्थितियों की गम्भीरता, चरित्र की उत्कृष्टता या निकृष्टता आदि की व्यंजना के लिए किया जाता है । इससे कथन मर्मस्पर्शी एवं रमणीय बन जाता है । 'मूकमाटी' के कवि ने उपचारवक्रता का औचित्यपूर्ण प्रयोग किया है जिससे काव्यात्मक चारुत्व की सृष्टि हुई है। कुछ नमूने प्रस्तुत हैं :
- "भय को भयभीत के रूप में/पाया !
...विस्मय को बहुत विस्मय हो आया।” (पृ. १३८) 0 "जो अपरस का परस करता है/क्या वह परस का परस चाहेगा?" (पृ. १३९)
(अपरस स्पर्श से परे- चिन्मय, परस=अनुभव) (परस-स्पर्शमय, पुद्गल) . "स्पर्श की प्रतीक्षा स्पर्शा कब करती?
स्वर के अभाव में/ज्वर कब चढ़ता है श्रवणा को ?" (पृ. ३२८) अभिव्यंजक अलंकार : कवि ने भावों की कलात्मक अभिव्यंजना के लिए जिन अलंकारों का प्रयोग किया है उनमें अत्यन्त स्वाभाविकता है । वे बलपूर्वक आरोपित किए गए प्रतीत नहीं होते । वस्तु के स्वरूप-वैशिष्ट्य को सम्यग्रूपेण व्यंजित करते हैं, यथा :
“सिन्धु में बिन्दु-सा/राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर।" (पृ. २३८) सिन्धु में बिन्दु की उपमा से राहु की विशालकायता और उसके समक्ष सूर्य की लघुता का द्योतन औचित्यपूर्ण
निम्नलिखित उक्ति में प्रयुक्त उत्प्रेक्षा द्वारा कुम्भ की बाह्य कालिमा का वर्णन बड़े रोचक ढंग से किया गया है :
“आज अवा से बाहर आया है/ सकुशल कुम्भ ।/कृष्ण की काया-सी नीलिमा फूट रही है उससे,/ऐसा प्रतीत हो रहा है वह, कि भीतरी दोष-समूह सब/जल-जल कर/बाहर आ गये हों।” (पृ. २९७-२९८)