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________________ 84 :: मूकमाटी-मीमांसा छेद का अभाव भर !" (पृ. ५१) विषयों की चाह इन्द्रियों को नहीं होती। वे तो जड़ हैं। इन्द्रियों के माध्यम से वासनाग्रस्त आत्मा ही विषयों की चाह करता है । रूपकालंकार में पिरोया गया यह भाव शोभा से निखर उठा है : "इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं/तन यह भवन रहा है,/भवन में बैठा-बैठा पुरुष भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है/वासना की आँखों से।” (पृ. ३२९) जो कठिनतम संकट को पार कर लेता है उसके लिए छोटे-मोटे संकट खिलौनों के समान हो जाते हैं। उपचारवक्ता के द्वारा अभिव्यक्त यह भाव कितना नुकीला हो गया है : "जब आग की नदी को/पार कर आये हम/और/साधना की सीमा-श्री से हार कर नहीं,/प्यार कर, आये हम/फिर भी हमें डुबोने की क्षमता रखती हो तुम?" (पृ. ४५२) आग की नदी का यह उपचारवक्र प्रयोग संकट की विकटता का एहसास कराने में अद्भुत क्षमता रखता है। एक तो नदी अपने आप में संकट का प्रतीक है, फिर वह भी आग की ? आग ने संकट को सहस्रगुना भयावह कर दिया है। इसी प्रकार साधना की चरम सीमा से, जहाँ हारना सम्भव हो, प्यार कर लेना साधना के अत्यन्त आनन्दपूर्वक सम्पन्न होने का द्योतक है। यहाँ भी उपचारवक्ता ने अपार सौन्दर्य का निवेश कर दिया है। संसार सन्ताप से मुक्ति की आकांक्षा बड़ी व्यग्रता से झाँक रही है शब्दों के इन सुन्दर झरोखों से : "कितनी तपन है यह !/बाहर और भीतर/ज्वालामुखी हवायें ये ! जल-सी गई मेरी/काया चाहती है/स्पर्श में बदलाहट ।” (पृ. १४०) मानव स्वभाव की यही विडम्बना है कि मनुष्य की दृष्टि सदा दूसरों को परखने में लगी रहती है। अपने को वह दूसरों से सदा ऊपर समझता है । यही उसके जहाँ का तहाँ रह जाने का कारण है। कवि की मुहावरामय काव्यकला इस तथ्य की ओर बड़े आह्लादक ढंग से ध्यान आकृष्ट करती है : "पर को परख रहे हो/अपने को तो परखो"जरा!/परीक्षा लो अपनी अब! बजा-बजा कर देख लो स्वयं को,/कौन-सा स्वर उभरता है वहाँ सुनो उसे अपने कानों से !/काक का प्रलाप है, या गधे का पंचम आलाप ?" (पृ. ३०३) पाप कर्म का फल प्रत्येक को भोगना पड़ता है, चाहे वह कोई भी हो । यह तथ्य व्यंजित किया गया है 'लक्ष्मण रेखा', 'राम', 'सीता' और 'रावण' के पौराणिक प्रतीकों से, जिससे अभिव्यक्ति कलात्मक बन गई है : "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता राम ही क्यों न हों/दण्डित करेगा ही।” (पृ. २१७) सन्त कवि की कवितामयी लेखनी से आहारदान के उत्तम पात्रभूत साधु का स्वरूप उपमाओं के मनोहर दर्पण से झाँकता हुआ मनहरण करता है :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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