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________________ सगा दगा, इन प्रयोगों में अन्त्यानुप्रास ने संगीतात्मक श्रुतिमाधुर्य की सृष्टि की है । भगवान् आदिनाथ द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग की आजकल चर्चा बहुत होती है। उसका भावविभोर कर देने वाले प्रवचनकर्त्ता बरसाती मेंढकों के समान प्रकट हो गए हैं । किन्तु वे मोक्षमार्ग की केवल बात ही करते हैं, उस पर चलते नहीं हैं । इस तथ्य की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में बड़ी पैनी हो गई है : मूकमाटी-मीमांसा :: 83 " आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का / आज अभाव नहीं है माँ ! परन्तु,/ उस पावन पथ पर / दूब उग आई है खूब ! / वर्षा के कारण नहीं, केवल कथनी में करुणा रस घोल / धर्मामृत-वर्षा करने वालों की भीड़ के कारण !” (पृ. १५१ - १५२) जिस मार्ग पर लोग चलना छोड़ देते हैं उस पर दूब उग आती है । अत: 'दूब उग आई है' मुहावरा, लोगों ने मोक्षमार्ग पर चलना छोड़ दिया है, इस अर्थ की अभिव्यक्ति में कितना प्रभावशाली हो गया है। होश को खोकर भी चिन्तामुक्त हुआ जा सकता है और होश में आकर भी। इन दोनों उपायों में क्या फर्क है ? इस रहस्य को इस प्रकार खोला गया है कि एक उपाय के प्रति जुगुप्सा और दूसरे के प्रति श्रद्धा की धाराएँ मन में प्रवाहित होने लगती हैं । यह 'शव' और 'शिव' शब्दों का कमाल है : " इस युग के / दो मानव / अपने आप को / खोना चाहते हैंएक/ भोग-राग को / मद्य-पान को / चुनता है; और एक / योग-त्याग को / आत्म- ध्यान को / धुनता है । कुछ ही क्षणों में / दोनों होते / विकल्पों से मुक्त । फिर क्या कहना ! / एक शव के समान / निरा पड़ा है, और एक / शिव के समान / खरा उतरा है।” (पृ. २८६) शरीर नहीं, आत्मा मूल्यवान् है, अतः आत्मा ही उपास्य है । इस आध्यात्मिक सत्य की अभिव्यंजना सीप और मोती तथा दीप और ज्योति के प्रतीकों द्वारा करनेवाली ये पंक्तियाँ उत्तम काव्य का निदर्शन हैं : “सीप का नहीं, मोती का/दीप का नहीं, ज्योति का सम्मान करना है अब !” (पृ. ३०७ ) तत्त्वज्ञानी आत्मा के बारे में केवल विचार करता है, ध्यानी आत्मा का आस्वादन करता है। ज्ञान और ध्यान के अन्तर को प्रकाशित करनेवाले ये काव्यात्मक शब्द प्रतीकात्मक सौन्दर्य से मण्डित हैं : “तैरने वाला तैरता है सरवर में / भीतरी नहीं, / बाहरी दृश्य ही दिखते हैं उसे । वहीं पर दूसरा डुबकी लगाता है, / सरवर का भीतरी भाग / भासित होता है उसे, बहिर्जगत् का सम्बन्ध टूट जाता है ।" (पृ. २८९ ) मनुष्य की साधना यदि निर्दोष हो तो संसार-सागर को पार करना असम्भव नहीं है। सागर और नाव के प्रतीकों ने इस भाव को कितनी मार्मिक व्यंजना दी है : 66 'अपार सागर का पार/पा जाती है नाव / हो उसमें
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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