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________________ 82 :: मूकमाटी-मीमांसा भूलते नहीं तुम!/भले ही/चूरण बनते, रेतिल;/माटी नहीं बनते तुम ! जल के सिंचन से/भीगते भी हो/परन्तु, भूलकर भी/फूलते नहीं तुम ! माटी-सम/तुम में आती नमी नहीं/क्या यह तुम्हारी/है कमी नहीं ? तुम में कहाँ है वह/जल-धारण करने की क्षमता? जलाशय में रह कर भी/युगों-युगों तक/नहीं बन सकते/जलाशय तुम ! मैं तुम्हें/हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा/परन्तु/पाषाण-हृदय है तुम्हारा, दूसरों का दुःख-दर्द/देखकर भी/नहीं आ सकता कभी/जिसे पसीना है ऐसा तुम्हारा/ सीना !" (पृ. ४९-५०) दुष्ट प्रकृति के लोग धर्म का उपयोग अपने को सुधारने में न कर साम्प्रदायिक विद्वेष फैला कर निहित स्वार्थों की सिद्धि में करते हैं । इस मानव स्वभाव की हृदय को मथ देनेवाली कलात्मक अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में हुई है : “कहाँ तक कहें अब!/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर ।/और प्रभु-स्तुति में तत्पर/सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है प्रभु-पथ पर चलनेवालों को ।/समय की बलिहारी है।” (पृ. ७३) धर्म के झण्डे के साथ 'डण्डा' तथा शास्त्र के साथ 'शस्त्र' शब्द असीम अर्थ के व्यंजक बन गए हैं। धर्म के नाम पर घटे और घट रहे दुनिया के सारे रक्तरंजित इतिहास को वे प्रत्यक्ष कर देते हैं। सांसारिक विषयों के प्रति जब आकर्षण समाप्त हो जाता है, हानि-लाभ, निन्दा-प्रशंसा, जय-पराजय दोनों ही जब अर्थहीन प्रतीत होने लगते हैं तब आत्मा में शान्ति का संगीत पैदा होता है, क्षोभ विलीन हो जाता है, समभाव का उदय होता है । इस प्रकार संग अर्थात् सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति से अतीत होने पर ही वास्तविक संगीत उत्पन्न होता है । यह महान् मनोवैज्ञानिक तथ्य हृदय को आन्दोलित कर देने वाले निम्न शब्दों में अत्यन्त कलात्मक रीति से अभिव्यक्त हुआ है : 0 “संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है और प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।” (पृ. १४४-१४५) "सुख के बिन्दु से/ऊब गया था यह/दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह, कभी हार से/सम्मान हुआ इसका,/कभी हार से/अपमान हुआ इसका। कहीं कुछ मिलने का/लोभ मिला इसे,/कहीं कुछ मिटने का/क्षोभ मिला इसे, कहीं सगा मिला, कहीं दगा,/भटकता रहा अभागा यह ! परन्तु आज,/यह सब वैषम्य मिट-से गये हैं/जब से मिला "यह मेरा संगी संगीत "है/स्वस्थ जंगी जीत है।” (पृ. १४६-१४७) इस काव्य से अनेक अर्थीकरणे प्रस्फुटित होती हैं। जिस प्रेम का केन्द्र शरीर होता है, वह प्रेम नहीं, वासना है। गुणाश्रित प्रेम ही प्रेम है । संसार में सुख बिन्दु बराबर है और दु:ख सिन्धु बराबर । 'हार' शब्द दोनों जगह भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। प्रथम बार उसका अर्थ है 'फूलों का हार', द्वितीय बार ‘पराजय'। यहाँ यमक अलंकार ने अपनी स्वाभाविकता के कारण चार चाँद लगा दिए हैं। बिन्दु-सिन्धु, सम्मान-अपमान, मिलने-मिटने, लोभ-क्षोभ,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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