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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 77 विवरण आदि के द्वारा अपनी निर्बाध कल्पना शक्ति का मनोरम परिचय कराया है, पात्रों के चरित्र-निर्माण में आपको कमाल हासिल है। कुल मिलाकर यह एक महाकाव्यात्मक कृति है। रस वर्णन : महाकाव्यात्मकता का एक और लक्षण - रसचित्रण - इस कृति में प्राप्त होता है। इसमें सभी रसों का वर्णन प्राप्त होता है । यद्यपि इस कृति में सभी रसों का विस्तार से चित्रण प्राप्त होता है, तथापि वह प्रसंग से अनुप्राणित नहीं है। माटी को शिल्पी द्वारा रौंदने के प्रसंग को लेकर सब रसों का चित्रण किया गया है । इस चित्रण की विशेषता यह है कि प्रत्येक रस अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने की कोशिश में है जब कि दूसरा उसकी कमियों को उजागर करता है। रसों के आपसी संवादों द्वारा रस विशेष के स्थायीभाव, विभाव आदि का परिचय दिया गया है । इस प्रकार इनमें नाटकीयता अनुस्यूत है। जैसा कि संकेत दिया जा चुका है यहाँ रस वर्णन का निमित्त है शिल्पी का पैरों द्वारा माटी को रौंदना । रौंदन क्रिया में वह इतना निमग्न हो जाता है कि धीरे-धीरे जोश उभरता है । जोश के साथ वीर रस का आगमन होता है । वीर रस जब अपनी डींग हाँकने लगता है तब शिल्पी उसे समझाता है कि उद्रेक, अधिकार भावना के निर्माता वीर रस के स्थान का सुपरिणाम तो नहीं निकलता । इसमें लालसा होती है । अत: मान का हनन इसकी परिणति है । तब हास्य का आगमन होता है । शिल्पी हास्य को हँसोड़, उतावला, अगम्भीर, अविवेकी बताता है तथा वेद बनने के लिए गम्भीर बनने की सीख देता है । हास्य अपमानित होकर रौद्र का आवाहन करता है, फिर भयानक, विस्मय आदि का आगमन होता है। इनके पश्चात् शृंगार आ टपकता है। शिल्पी मानता है कि शृंगार शरीर की प्रीति से बँधा हुआ है। अत: वह श्रेष्ठ नहीं हो सकता, अंगातीत होना ही सच्ची प्रीति है । शृंगार की स्थिति को देखकर मंच पर बीभत्स आ पहुँचता है । बीभत्स के घिनौने रूप के दर्शन से करुण रस से रहा नहीं जाता। यहाँ, प्रत्येक रस अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने पर तुला हुआ है । करुण रस सब रसों को समझाता है कि हमें अपनी न हाँकते हुए, दूसरों का मूल्य करना चाहिए, सदाशयता से रहना चाहिए। करुणा श्रेष्ठ है, अन्य रसों की तुलना में श्रेष्ठ है, लेकिन वह नहर की भाँति, उछलते उपयोग की परिणति है। उजली-सी उपयोग की नदी की भाँति रहनेवाला शान्त ही सर्वश्रेष्ठ है । आचार्यजी ने करुण और शान्त की विस्तार से तुलना करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत किया है : "शान्त-रस जीवन का गान है/मधुरिम क्षीर-धर्मी है ।" (पृ. १५९) इस प्रकार शान्त रस की सर्वश्रेष्ठता स्वत:सिद्ध है। रस वर्णन में संवाद शैली का प्रयोग, प्रत्येक रस की श्रेष्ठता सिद्ध करने की स्पर्धा, रस विशेष के आगमन पर उसका रूप वर्णन, विवाद के बीच उत्पन्न अनुभाव, संचारी भाव आदि का एक अद्भुत समाँ बँध जाता है । रौद्र रस के अनुभावों का चित्रण इस सन्दर्भ में विशेष द्रष्टव्य है। ___ इस वर्णन की विशेषता यह भी है कि रस वर्णन प्रसंग के अनुसार स्थान-स्थान पर नहीं आता, वह एक ही स्थान पर (पृ. १३०-१६०) आ गया है । इस प्रकार रस वर्णन की परम्परा को निभाया भी गया है और तोड़ भी दिया गया है। कारण, प्रस्तुत कृति में शान्त रस की प्रधानता है, शृंगार की नहीं। इस वर्णन द्वारा कवि का उद्देश्य भी स्पष्ट होता है । आचार्यत्व एवं विषय की यह परिणति है । यह तो स्पष्ट है कि इस वर्णन में आचार्यजी की कवित्वशक्ति और ज्ञानशक्ति का अद्भुत संयोग हुआ है। महाकाव्य के लक्षणों की चर्चा से यह तात्पर्य नहीं है कि प्रस्तुत कृति की समीक्षा महाकाव्य के परम्परापुष्ट लक्षणों के आधार पर करनी है । यह सही है कि उस दृष्टि से भी इसकी महाकाव्यात्मकता में बाधा नहीं आती है, फिर भी इस कृति की समीक्षा महाकाव्य के लक्षणों मात्र के आधार पर करना अपर्याप्त है। वर्तमान भारतीय जीवन अनेक कारणों से विखण्डित बन गया है । परम्परालब्ध जीवन मूल्यों की अपर्याप्तता और कुछ माने में अप्रासंगिकता स्पष्ट हो रही है। दूसरी ओर पाश्चात्य जीवन के बाह्य आकर्षण हावी हो रहे हैं। विज्ञान
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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