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________________ 76 :: मूकमाटी-मीमांसा O " सहधर्मी सजाति में हो / वैर वैमनस्क भाव / परस्पर देखे जाते हैं ।” (पृ. ७१ ) ऐसे शताधिक उदाहरण प्रस्तुत कृति में सहज ही प्राप्त हो सकते हैं । भाषा के सम्बन्ध में कुछ अन्य विशेषताएँ भी द्रष्टव्य हैं। संस्कृत वचनों का व्यावहारिक दृष्टातों द्वारा अनुवाद प्रस्तुत करना आपकी अन्यतम विशेषता है । 'उत्पाद - व्यय-धौव्ययुक्तं सत्' का यह अनुवाद देखिए : "आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है और/ है यानी चिर- सत् / यही सत्य है यही तथ्य !” (पृ. १८५) इसी प्रकार जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली के अर्थों को भी आपने सहज, सरल भाषा में अनूदित किया है । की मृदुता का क्या ही सुन्दर चित्र अंकित किया है आपने ! : "आम्र - मंजुल - मंजरी / कोमलतम कोंपलों की मसृणता भूल चुकी अपनी अस्मिता यहाँ पर । " (पृ. १२७) ग्रीष्म ऋतु से सृष्टि में जो परिवर्तन आ गया है, उसका भी श्रेष्ठ चित्र आपने खींचा है : "वह राग कहाँ, पराग कहाँ / चेतना की वह जाग कहाँ ? वह महक नहीं, वह चहक नहीं, / वह ग्राह्य नहीं, वह गहक नहीं, वह 'वि' कहाँ, वह कवि कहाँ, /मंजु -किरणधर वह रवि कहाँ ?" (पृ. १७९ ) ग्रीष्म के कारण हरियाली समाप्त हो गई है, फलों की मधुरिमा समाप्त हो गई है, मन्द, सुगन्धयुक्त पवन का कहीं पता नहीं है, फल-पत्ते हिलते नहीं हैं, भ्रमरों का गुंजन रुक गया है, शीतलता विनष्ट हो गई है, अब केवल तपन शेष है। ग्रीष्म के इस वर्णन में आपने 'कहाँ' की झड़ी लगाई है। ऐसे श्रेष्ठ वर्णन स्थलों की इस कृति में कमी नहीं है । इनमें भी भाषा की सरलता, अभिधात्मकता, सरसता सर्वत्र झलकती है। शब्द का बोधात्मक स्तर तक अवगाहन कर उसे रंग, रूप, ध्वनि के साथ प्रस्तुत करने में आपको कमाल हासिल है । महाकाव्यात्मकता :- ‘मूकमाटी' चार खण्डों में विभाजित कृति है जिसमें माटी की ऊर्ध्वयात्रा ग्रथित है। प्रत्येक खण्ड शीर्षकयुक्त है । पहले खण्ड का नाम है 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ, जिसमें नदी के किनारे की माटी कुम्भकार के आँगन में पहुँचती है। कुम्भकार उसे मृदु बनाकर कुम्भ तैयार करने योग्य बनाता है। दूसरे खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में माटी से कुम्भ की निर्मिति और कुम्भ को अवाँ में रखने की कहानी है। 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' शीर्षक तीसरे खण्ड में जलवर्षा का चित्र है तो चौथे खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भ के तैयार होने, सेठ द्वारा उसे खरीदने और सेठ परिवार को ऊर्ध्वयात्रा की ओर ले चलने की कहानी है। माटी की यात्रा सफल होती है। इस प्रकार माटी से कुम्भ के निर्माण और उसके गन्तव्य तक पहुँचने की कहानी है। अर्थात् यह यात्रा इतनी सरल यात्रा नहीं थी । अनगिनत संकटों से जूझने और अपनी तपस्या पर अटल रहने के पश्चात् ही उसे प्राप्तव्य प्राप्त होता है । माटी की ऊर्ध्वयात्रा अनेक मायनों में अपूर्व है । माटी जैसी क्षुद्र वस्तु के जीवन की सफलता मानव जाति के लिए प्रेरक तो है ही, साथ - साथ उसके लिए वह एक मानक भी है। जैन दर्शन के निर्वाण पथ की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति है । मुनिजी ने अपनी प्रतिभा से इस घटना को वृहत् महाकाव्यात्मक रूप प्रदान किया है। साधना पथ के इस अटल पथिक की यात्रा को पूर्णत: प्रकृति के विराट् पटल पर अंकित करके कवि ने इस कृति को भव्य एवं पावन रूप प्रदान किया है । कथावस्तु की विरलता को विभिन्न घटना चक्रों के निर्माण से व्यापक बनाया है, अनेकानेक निसर्ग चित्रों, रस 1
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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