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________________ 74 :: मूकमाटी-मीमांसा एवं दार्शनिकता काम करती है। इस पद्धति के प्रयोग के परिणामस्वरूप शैली में चमत्कृति भी अनायास आ जाती है। शैली के कुछ आयाम : इस विवेचन से यह तात्पर्य नहीं कि आपने व्युत्पत्तिमूलक, वर्णनात्मक तथा संवादशैलियों का ही प्रयोग किया है। इस कृति में प्रसंगानुरूप विभिन्न शैलियों का ऐसा प्रयोग किया है कि सबके उदाहरण यहाँ न दिए जा सकते हैं और न ही सम्भव हैं। तथापि विविधता दर्शानेवाले कुछ चुने हुए उदाहरण यहाँ देने का मोह संवरण नहीं होता है । प्रलयसदृश वर्षा हो रही है । सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची है। धरती की स्थिति को देखकर सूर्य प्रखर किरणों द्वारा बादलों को दूर भगाने का उपक्रम कर रहा है। अपने रास्ते में इस व्याघात को देख कर बादल क्षुब्ध हो उठते हैं। अपनी करतूत से बादलों में घमण्ड, उद्धतता और उद्दण्डता पैदा हो गई है। वे सूर्य को ललकारते हुए सम्बोधित करते हैं : " अरे खर प्रभाकर, सुन ! / भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर मण्डल देवता-ग्रह - / ग्रह- गणों में अग्र तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है / अरे उग्रशिरोमणि ! तेरा विग्रह”“यानी-/देह-धारण करना वृथा है । कारण,/ कहाँ है तेरे पास विश्राम गृह ? / तभी तो दिन भर दीन-हीन-सा / दर-दर भटकता रहता है !" (पृ. २३१ ) इस उद्धत, उद्दण्ड ललकार में तर्क का श्रेष्ठ संकेत भी है। छोटे मुँह बड़ी बात ! असभ्य की बातों में ग्राम्यता और घमण्ड का वास रहता ही है। आचार्यजी की शैली नीच और दुर्जन की भावना को शब्दों में पकड़ पाने में सफल हो गई है । उद्दण्डता के साथ-साथ दयनीय स्थिति का चित्र प्रस्तुत करते हुए पक्षियों का कैसा तर्कसंगत वर्णन किया है ! राहु ने सूर्य को ग्रस लिया है और पक्षीगण विचलित हो उठे हैं : " मासूम ममता की मूर्ति / स्वैर-विहारी स्वतन्त्र - संज्ञी संगीत - जीवी संयम - तन्त्री / सर्व-संगों से मुक्त नि:संग अंग ही संगीती-संगी जिस का / संघ - समाज सेवी वात्सल्य-पूर वक्षस्तल !" (पृ. २३९ ) .. पंछियों के लिए अपनाए गए विशेषण पंछियों का पूर्ण परिचय कराने में पूर्णतः सक्षम हैं। पंछियों के समस्त गुणविशेषों से युक्त यह चित्र आचार्यजी की महा प्रतिभा की सहज अभिव्यक्ति है । राहु के कारनामों से त्रस्त पक्षीदल अपने-अपने नीड़ों में पहुँच चुपचाप, निस्तब्ध बैठ गया है। उनकी निस्तब्धता का चित्र देखिए : "ये तो कल के ही कर्ण हैं/ परन्तु, खेद है कल का रव कहाँ है वह कलरव ?/कलकण्ठ का कण्ठ भी कुण्ठित हुआ वन - उपवन - नन्दन में / केवल भर-भर आया है करुण-क्रन्दन आक्रन्दन !" (पृ. २४० ) कल के कलरवकारियों के इस चित्र में प्रभाव तो है ही, साथ - साथ यमक, अनुप्रास आदि अलंकारों का भी सहज प्रयोग मोहक भी है । इन कुछ उदाहरणों के अतिरिक्त और भी ऐसे कई स्थल हैं, जहाँ आचार्यजी की भाषा-शैली की विशेषताओं नमूने प्राप्त होते हैं। विभिन्न रस परस्पर वार्तालाप द्वारा आत्मपरिचय और कहीं-कहीं परनिन्दा करते हैं । आचार्यजी की शैलीगत कुशलता का यहाँ सुन्दर प्रयोग प्राप्त होता है। रस की विशेषता के अनुसार भाषा एवं शैली में भिन्नता
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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