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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 73 चिन्तनशीलता और भाषाधिकार के दर्शन तब होते हैं जब आप एक-एक शब्द के मूल तक पहुँचते हैं और उसके रहस्य को खोलते हैं। इस सन्दर्भ में आपने कुम्भकार, गदहा, संसार, स्वप्न आदि शब्दों की जो व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं, वे मौलिक हैं । 'कुं' और 'भ' के मूलार्थ के आधार पर आप कुम्भकार को भाग्यविधाता बताते हैं तो रोगहारक को गदहा । 'संसार' शब्द की व्याख्या विशेष द्रष्टव्य है : "सृ धातु गति के अर्थ में आती है, / सं यानी समीचीन सार यानी सरकना / जो सम्यक् सरकता है वह संसार कहलाता है ।" (पृ. १६१ ) 'स्वप्न' शब्द का अर्थोद्घाटन करते हुए आप कहते हैं कि निजभाव का रक्षण न कर सकनेवाला स्वप्नदर्शी होता है। जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकता वह औरों को क्या सहयोग देगा ? अत: सही है : "अतीत से जुड़ा / मीत से मुड़ा बहु उलझनों में उलझा मन ही / स्वप्न माना जाता है।" (पृ. २९५) प्रलय वर्षा प्रसंग में सूर्य द्वारा प्रस्तुत नारी, महिला, अबला, सुता आदि स्त्रीसूचक शब्दों की व्याख्याएँ भी मार्मिक, नवीन तथा आचार्यजी की श्रेष्ठ चिन्तनशीलता और पवित्र आदर्शवादिता की परिचायक हैं। नारी की महानता, कोमलता, पवित्रता आदि गुणों का उद्घाटन शब्दार्थों द्वारा किया गया है। यह एक विशिष्ट शैली आपकी साहित्य को देन है । शब्दों एवं परिकल्पनाओं की नई व्याख्याओं के समान आपकी शैली में एक अन्य विशेषता दृष्टिगोचर होती है, और वह है विलोम शैली । शब्द विशेष के अक्षरों को विलोम द्वारा नई अर्थवत्ता प्रदान करने की आपकी विशेषता अनन्य कही जा सकती है । यह मात्र चमत्कृति निर्माण के आग्रह का परिणाम नहीं है । इसमें आपकी चिन्तनशीलता और मौलिकता के दर्शन होते हैं। 'दया', 'हीरा', 'राख', 'लाभ' आदि के विलोम 'याद', 'राही', 'खरा', 'भला' इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं। ‘धरती' की विलोम द्वारा प्रस्तुत व्याख्या द्रष्टव्य है : "धरती तीरध/ यानी, / जो तीर को धारण करती है या शरणागत को/ तीर पर धरती है / वही धरती कहलाती है ।" (पृ. ४५२) आगे चलकर आप 'धरती' शब्द में किंचित् परिवर्तन कर विलोम द्वारा 'तीरथ' बताते हैं और कहते हैं कि शरणागत को जो तारता है, वही सही तीर्थस्थान है। 'धरणी' शब्द को नीर धारण करनेवाली कहकर उसकी एक नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। धरती और धरणी की ये व्याख्याएँ धरती माता के नए आशयों को ही स्पष्ट नहीं करती, बल्कि एक नई उदार, पवित्र दृष्टि का भी निर्माण करती हैं। प्रकृति के हर कण-कण के प्रति चिन्तन मुनिजी की आत्मीयता, एकरूपता तथा मौलिकता को स्पष्ट करता है। प्रकृति के प्रति यह काव्यात्म चिन्तन इस कृति को महान् बना देता है । विलोम के प्रयोग के समान शब्दों के, अक्षरों के विशिष्ट विग्रह द्वारा भी आप नई भूमिका प्रस्तुत करते हैं । आदमी शब्द को आदमी, कृपाण को कृपा-न, नमन को नमन अथवा न-मन, कलसी को कल-सी आदि इसी शैली कुछ उदाहरण हैं। इसी तरह का यह प्रयोग द्रष्टव्य है : के 66 'कम बलवाले ही / कम्बलवाले होते हैं ।" (पृ. ९२ ) यमक, श्लेष आदि शब्दालंकारों की सृष्टि के आग्रह से ऐसे प्रयोग नहीं प्राप्त होते हैं। यह आपकी शैली की मौलिक विशेषता है। इस व्युत्पत्तिमूलक शैली के पीछे आपकी व्यापक, विराट्, शुभंकर तथा हितकारी चिन्तनशीलता
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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