SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72 :: मूकमाटी-मीमांसा दशों - दिशायें बधिर हो गईं, / नभ - मण्डल निस्तेज हुआ फैले बादल - दलों में डूब-सा गया अवगाह-प्रदाता अवगाहित-सा हो गया !" (पृ. २३२ ) घनघोर घटाओं से आच्छन्न आकाश मण्डल की भयंकरता, उदासीन स्थिति की निर्मित आदि का पूरा चित्र यहाँ खड़ा होता है तथा एक भाव की सृष्टि भी होती है। ऐसे और भी कई चित्र इस कृति में प्राप्त होते हैं । प्रलय वर्षा प्रसंग में ऐसे कतिपय उदाहरण सर्वत्र विद्यमान हैं। सागर और सूर्य का एक महासमर जारी है। कभी सागर सूर्य पर छा ता है तो कभी सूर्य की विजय स्पष्ट होने लगती है। सूर्य के प्रताप से बादल और सागर हार से गए, तब सागर ने राहु का आवाहन किया । पानी और किरणों के मेल से आकाश में स्वर्गीय रंगीनी फैल गई जिससे राहु गुमराह हो गया । ने इस स्थिति का मनोरम चित्र प्रस्तुत किया है : 1 "यान में भर-भर / झिल - मिल, झिल-मिल अनगिन निधियाँ/ ऐसी हँसती धवलिम हँसियाँ मनहर हीरक मौलिक-मणियाँ / मुक्ता - मूँगा माणिक - छवियाँ पुखराजों की पीलिम पटियाँ / राजाओं में राग उभरता नीलम के नग रजतिम छड़ियाँ ।” (पृ. २३५-२३६) इस वर्णन में रंग ज्ञान, शब्द प्रयोग आदि का परिचय तो प्राप्त होता ही है, मुनिजी की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति, प्रकृति से तादात्म्य का भी श्रेष्ठ चित्र मिलता है । यह चित्र ऐसा मनोरम मायाजाल खड़ा करता है कि राहु रास्ता भूल तो कोई आश्चर्य नहीं । अपनी स्थिति से राहु उकता जाता है और फिर क्रोध से सूर्य को ग्रसता है : "यह सन्ध्याकाल है या / अकाल में काल का आगमन । तिलक से विरहित / ललना - ललाट- तल- सम गगनांगन का आँगन / अभिराम कहाँ रहा वह ?" (पृ. २३८ ) आकाश का रंगहीन रूप ललना के तिलक विरहित ललाट-सा बन गया है । गगनांगना का अभिराम प्रिय ओझल - सा हो गया है । अकाल में सन्ध्याकाल का आगमन हुआ है। कितना सटीक चित्र है यह ! लेकिन इस समर का अन्त निश्चित है । प्रलयकालीन वर्षा के पश्चात् आकाश के निरभ्र हो जाने पर जो उत्साहजन्य स्थिति पैदा होती है, उसका चित्र देखिए : "गगन की गलियों में, / नयी उमंग, नये रंग अंग-अंग में नयी तरंग / नयी ऊषा तो नयी ऊष्मा नये उत्सव तो नयी भूषा ।" (पृ. २६३ ) यह सरल किन्तु उत्साहपूर्ण चित्र देखते ही बनता है । हर्ष, उल्लास, खुशी, पीड़ा, करुणा, क्रोध, भयंकरता, उदासीनता, निराशा, आशा, ईषत् शृंगार आदि के अनेकानेक चित्र पूरी कृति में भरे पड़े हैं । आचार्यजी की वर्णनक्षमता, दृश्यों की विविधता और विराटता, अलंकरण पद्धति, आशय सघनता, चिन्तनशीलता के अनेकानेक दृश्य आपकी अपार वर्णनशक्ति के परिचय देते हैं । शब्द से उसके मर्म तक : 'मूकमाटी' के रचयिता की महाकाव्यात्मक प्रतिभा के अनुरूप वर्णनशक्ति, संवादपद्धति के साथ-साथ उनकी चिन्तनशीलता भी उनकी भाषा-शैली के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करती है । आचार्यजी की
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy