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मूकमाटी-मीमांसा ::71
इसमें वचनवक्रता, व्यंग्यात्मकता और वाग्-विदग्धता कूट-कूटकर भरी हुई है। ऐसे और भी कई उदाहरण प्राप्त होते हैं। पात्रों की चरित्रगत विशेषता के अनुरूप तथा प्रसंगों के अनुकूल संवाद सर्वत्र पाए जा सकते हैं। आतंकवाद का यह आवाहन देखिए:
“पकड़ो ! पकड़ो !/ठहरो ! ठहरो!/सुनते हो या नहीं/अरे बहरो! मरो या/हमारा समर्थन करो,/अरे संसार को श्वभ्र में/उतारने वालो! किसी को भी तारनेवाले नहीं हो तुम !/अरे पाप के मापदण्डो!
सुनो ! सुनो !" जरा सुनो!" (पृ. ४६७) भागते हुए कुम्भ सेठ और सेठ परिवार को सम्बोधित करते हुए आतंकवाद का प्रस्तुत कथन उसकी भयानकता और उद्धतता को स्पष्ट करता है।
आत्मपरिचय, आत्मनिवेदन, सम्बोधन, व्यंग्य के साथ-साथ संवादों में उचित स्थानों पर चुलबुलापन और उससे उत्पन्न व्यंग्य भी है । मछली ऊर्ध्वयात्रा के लिए तत्पर है, लेकिन एक मोहयात्री मछली इस यात्रा के लिए कतई तैयार नहीं है । उसे यह समझाकर कि यहाँ पड़ी रहोगी तो बड़ी मछली छोटी मछली को निगल लेगी ही, उसका मार्मिक उत्तर है कि हम अपने के काम तो आएँगी, आदमी का क्या भरोसा ? वह कहती है :
"बाहरी लिखावट-सी/भीतरी लिखावट/माल मिल जाये, फिर कहना ही क्या !/ यहाँ"तो""/'मुँह में राम/बगल में छुरी'
बगुलाई छलती है।" (पृ. ७२) वह फिर कहती है :
“अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों और कृपाणों पर भी
'दया -धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है ।" (पृ. ७३) भाषा का प्रयोग, कथन में मछली-सी चंचलता और वक्रता तो है ही। इसके अतिरिक्त, कितने सहज, सरल शब्दों में मनुष्य की वास्तविकता का भण्डाफोड़ कर दिया है। इस कृति के संवादों में ऐसे स्थान कम नहीं हैं। संवादों में पात्रानुकूल विविधता इनकी प्रमुख विशेषता है।
लेकिन प्रस्तुत कृति के संवादों में प्रमुखता रही है तत्त्वचिन्तन और नीतिशिक्षा की। इस कृति में ऐसे सैकड़ों स्थल सर्वत्र प्राप्त होते हैं । धरती का माटी को उपदेश इसका बहुत अच्छा उदाहरण है । साधना पथ की कठिनता, साधना के मार्ग के अवरोधों के प्रति माटी को सचेत करते हुए अपने पथ से विचलित न होने की सीख इसका उदाहरण है। चिन्तनगर्भ संवाद पर्याप्त विस्तृत हैं, जो आवश्यक भी हैं। इनमें आख्यानात्मकता, व्याख्यामयता तथा मार्मिकता भी है। एक-एक तत्त्व को उद्घाटित करने के हेतु दिए गए सर्व ज्ञात दृष्टान्त तथा दार्शनिक चिन्तन का मनोहर मेल इनमें है। लेकिन ऐसे संवादों में निरा उपदेश नहीं, जो संवाद को नीरस बना दे। इनके माध्यम से सन्त कवि ने आवश्यक टिप्पणी द्वारा चिन्तन के एक-एक अंग और अंश को उद्घाटित किया है। वर्णन : प्रकृति चित्रण में वर्णनात्मकता है ही, किन्तु प्राकृतिक चित्रों के अतिरिक्त आचार्यजी ने इस कृति में स्थानस्थान पर विभिन्न भावों को वर्णनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है । अत: प्रस्तुत कृति के वर्णनों पर अलग से लिखना आवश्यक है।
बादल सूर्य को चुनौती देते हुए जब दूषित वचनों की वर्षा करते हैं तब मुनिजी इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं :
"कठोर कर्कश कर्ण-कटु/शब्दों की मार सुन