________________
70 :: मूकमाटी-मीमांसा सकता है । इसका रहस्य यह है कि प्रकृति से जुड़कर ही कुम्भ अपनी यात्रा में यश प्राप्त करता है। निष्कर्ष रूप ठीक ही लिखा गया है:
"निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का
वर्गातीत अपवर्ग हुआ।” (पृ. ४८३) कहना न होगा कि 'मूकमाटी' प्रकृति के विराटता पर अंकित ऊर्ध्वगमन का एक अपूर्व काव्य है। इसमें केवल कुछ श्रमणों की अथवा शिल्पी या सेठ और उसके परिवार की ऊर्ध्वयात्रा की कहानी नहीं है, प्रकृति की अभिन्न अंग माटी की ऊर्ध्वयात्रा की सफलता की गाथा है। संवाद : संवाद इस कृति के प्राण हैं। इन संवादों की कतिपय विशेषताएँ हैं। संवादों द्वारा आचार्यश्री का चिन्तन ही विशेषकर उभरकर आ गया है । इनके माध्यम से निर्जीव पात्रों को भी सजीव बना दिया गया है और परिणामत: नाटकीयता का भी निर्वाह हो सका है। यहाँ धरती, माटी, कंकर, रस्सी, लेखनी, काँटा, कुम्भ, बबूल की लकड़ी, श्रीफल, पत्र, कपोल, लट, स्वर्ण कलश, कलसी आदि निर्जीव पात्र तो सूर्य, बादल, सागर, अग्नि आदि सचेत-से पात्र भी बोलते हैं। विभिन्न रस, आतंकवाद, चेतना आदि भाववाचक पात्र भी बोलते हैं, फिर शिल्पी, राजा, सेवक, सेठ तो बोलेंगे ही। इस कृति में सजीव पात्र कम बोलते हैं और निर्जीव पात्र अधिक बोलते हैं। निर्जीव पात्र भी अपनी बातों द्वारा अपनी चारित्रिक विशेषताओं को भी स्पष्ट करते हैं। बबूल की लकड़ी का यह कथन देखिए :
"जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है/हम लकड़ी जो रहीं लगभग धरती को जा छू रही हैं/हमारी पाप की पालड़ी भारी हो पड़ी है।"
(पृ.२७१) लकड़ी का कड़ापन, धरती की ओर खिसकना आदि का कितना सरल और यथातथ्य चित्रण है। इसी प्रकार प्रायः हर पात्र अपनी विशेषता स्पष्ट करता है । संकोचशीला, लाजवती माटी का यह दास्यभाव युक्त आत्मनिवेदन देखिए :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,
'अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !
सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !" (पृ. ४) एक ओर ऐसे विनययुक्त वचन हैं, तो दूसरी ओर अहंकार से युक्त भी । सेठ ज्वरग्रस्त अवस्था में बेहोश हो गया है। बिस्तर में खटमल है, सेठ के चारों ओर मच्छर चक्कर काट रहा है। लेकिन दोनों अपने चरित्र के अनुरूप सेठ के ज्वरयुक्त शरीर का खून नहीं पा सकते । अपने कुकर्म को कुकर्म न मानकर वे सेठ को ही दोषी ठहराते हैं। उनके संवाद में कथन का तिरछापन एक ओर उनके चरित्र को उजागर करता है तो दूसरी ओर एक व्यंग्य का निर्माण करता है। मच्छर खटमल से कह रहा है :
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है,/उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं,/काकतालीय-न्याय से/कुछ मिल भी जाय
वह मिलन लवण-मिश्रित होता है/पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।” (पृ. ३८५) ज्वरयुक्त व्यक्ति का खून खट्टा होता है । इस तथ्य को पकड़कर धनिकों पर कितना सही व्यंग्य किया है !