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________________ देख न ले | इस सन्धिकाल का छायावादी चित्रण सरलता में भी लाजवाब है : "न निशाकर है, न निशा/न दिवाकर है, न दिवा अभी दिशायें भी अन्धी हैं । " (पृ. ३) मूकमाटी-मीमांसा :: 67 कितना सटीक, सरल, किन्तु स्पष्ट चित्र है यह सन्धिकाल का ! अत: प्रात: के आगमन की गुप्तवार्ता की गन्ध किसी दूसरे की नाक तक नहीं जा सकती, सागर की ओर सरपट भागनेवाली सरिता इस वार्ता को सुन नहीं पाती । कितना सूक्ष्म, मोहक एवं सौन्दर्यलक्ष्यी चित्र है यह ! कृति के प्रारम्भ में ही आपकी अपूर्व कल्पनाविधायिनी, सूक्ष्म निरीक्षणकारी, सौन्दर्यविधायिनी कवित्वशक्ति का परिचय प्राप्त होता है। इस वर्णन में चित्रात्मकता, आलंकारिकता एवं आकर्षकता है । इस चित्र की पृष्ठभूमि पर धरती और मिट्टी का चिन्तनगर्भ संवाद चित्रण को अधिक पावन बना देता है । धरती और माटी के बीच की तत्त्वचर्चा के पश्चात् माटी में नवजीवन छा जाता है जिससे उसे रात्रि भी प्रभात - सी लगती है, फिर प्रभात का क्या कहना ! : " प्रभात आज का / काली रात्रि की पीठ पर हलकी लाल स्याही से / कुछ लिखता - सा है, कि यह अन्तिम रात है / और / यह आदिम प्रभात । " (पृ. १९) माटी के जीवन में परिवर्तन लानेवाले प्रभात चित्रण में उल्लास, उत्साह और ऊर्ध्वगामिता के निश्चय का संकेत है । अत: उसके लिए आज का प्रभात आदिम प्रभात है । इस प्रभात में अब हरियाली खिल जाती है, पानी में ह पैदा होता है और ओसकणों में उल्लास । माटी के जीवन में नया पर्व आने वाला है । मुनिजी ने यहाँ प्रभात का हर्षोल्लासमय मनोहर चित्र प्रस्तुत किया है। इस वर्णन में आपने प्रकृति को माटी के जीवन की उच्चस्तरीय भावना के साथ जोड़ दिया है। : " जोश के क्षणों में / प्रकाश - असंग ।” (पृ. २१) प्रारम्भिक प्रभात वर्णन में मंगलाचरण का - सा स्वर है, कल्पनाशक्ति और बाह्यवर्णन का आग्रह है, तो दूसरे वर्णन में माटी के जीवन की ऊर्ध्वता का संकेत है, मनोवैज्ञानिकता है तथा कथावस्तु को आगे ले चलने की सूचकता है। प्रारम्भिक चित्र विशाल, उल्लासमय कैनवास की सूचना प्रदान करता है, तो दूसरा दार्शनिकता को ग्रहण करता है । इस कृति के अपराह्न का चित्र अपनी विशेषता लिए हुए है। आतप और उमस से भरी दोपहरी का उदास एवं यातनामय चित्र यहाँ नहीं है। शिल्पी द्वारा कुएँ में छोड़ी गई बालटी से ऊर्ध्वकामी मछली ऊपर आ रही है। उसे दोपहरी की धूप की आभा से सुख का अनुभव होता है। धूल सिन्दूर - सी लगती है । सूर्य की अंगना धूप उपाश्रम की सेवा में रत है। लेकिन इस समय रूपराशि ईश्वर - सी अस्पर्श्य है । वह पकड़ में नहीं आती । यह मानो उपाश्रम की छाया का परिणाम है। शिल्पी के आँगन को यहाँ स्वर्गीय बताया है। धूप भी ज्योत्स्ना-सम प्रतीत होती है मानो स्वभावदर्शन से क्रिया का अभाव उत्पन्न होता है । काल वर्णन में सरलता, कल्पनाशीलता, सहजता, सोद्देश्यता एवं प्रसंगानुकूलता है। मनोहारिता और नवीनता इनकी विशेषताएँ हैं । इनमें सहज आलंकारिकता, दिव्यता और पावनता विद्यमान है । मुनिजी की चिन्तनशीलता इन्हें व्याप लेती है तो अनायास कवित्वशक्ति कुलाँचें मारती रहती है। प्रकृति पटी के इस विराट् अभिनय के ये भिन्न-भिन्न चित्र अपने रूप में भी उतने ही श्रेष्ठ बन पड़े हैं । काल के अतिरिक्त ऋतु वर्णन इस कृति की एक और विशेषता है। इसमें प्रधानत: शीतकाल, ग्रीष्मकाल तथा
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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