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________________ 66 :: मूकमाटी-मीमांसा पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।" (पृ. ३८५) इधर समाज एक-दूसरे के खून का प्यासा बन गया है। आदमी उस श्वान की तरह बन गया है जो प्रयोजनहीन भौंकता है और जीने के लिए पूँछ हिलाता है । वह स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता है । इससे सर्वत्र मलिनता आ गई है। स्वार्थान्धता और व्यर्थ की आपाधापी के कारण शान्ति समाप्तप्राय है, अशान्ति का विकास हो गया है । अशान्ति से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है । आतंकवाद समाप्त होगा तभी पर-मत के प्रति सहिष्णु और अनेक विकल्पों की सम्भावनाओं को स्वीकार करने वाले 'अनेकान्तवाद' का श्रीगणेश होगा : “आतंकवाद का अन्त/और/अनन्तवाद का श्रीगणेश।" (पृ. ४७८) प्रशस्त आचार-विचार वाले जीवन को समाजवाद सिद्ध करते हुए आप लिखते हैं : "समाज का अर्थ होता है समूह/और/समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है । कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि/प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचार वालों का/जीवन ही समाजवाद है। समाजवाद-समाजवाद चिल्लाने मात्र से/समाजवादी नहीं बनोगे।" (पृ. ४६१) लेकिन तर्क पर चलनेवाले विज्ञान के बढ़ते चरणों तथा स्वार्थलिप्सा के कारण समाज अपना रास्ता भूल गया है। करुणा भाव के अभाव में हृदय के स्थान पर 'सर' का प्रयोग प्रमुख बन गया है, इसलिए 'असर'समाप्त हो गया है । अत: कोष के श्रमणों को छोड़ कर होश के श्रमणों की संख्या बढ़ने, आतंकवाद के समाप्त होने, स्वार्थ लिप्सा के नष्ट होने और करुणा पर आधारित प्रशस्त आचार-विचार का विकास होने से ही समाज में सुख-शान्ति-सम्पन्नता आ सकती है। आतंकवाद से वही लड़ सकता है जो नि:स्वार्थ बन समाज के लिए सर पर कफन बाँध लेने की करुणा हृदय में पालता है। कुम्भ इसका प्रतीक है। आध्यात्मिक समाजवाद की दृष्टि एक ओर विकृति पर प्रहार करती है तो दूसरी ओर परिवर्तन की नई प्रेरणा प्रदान करती है। प्रस्तुत प्रबन्धकाव्य मात्र नीरस दर्शन की सीढ़ियों का पथदर्शन नहीं करता, वह वर्तमान से सीधे नाता जोड़ कर आमूलचूल अहिंसामय,परमतसहिष्णु, मानव-मंगल-कामी नए समाज की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वह रास्ता है निर्वैर, शुभसंकल्प धारण करनेवाले ऊर्ध्वकामी कुम्भ का । विचार के स्तर पर आचरण की उच्चता इस कृति की अन्यतम विशेषता है । प्रस्तुत कृति का शिल्पपक्ष भी उतना ही श्रेष्ठ है जितना उसका चिन्तनपक्ष। सन्त कविजी की चिन्तनशीलता, कल्पनाप्रवणता, विस्तारक्षमता तथा महाकाव्यात्मक विराटता के एक साथ दर्शन इस कृति में होते हैं। प्रकृति-चित्रण : इस कृति के विषय के समान इसका प्रकृति चित्रण भी विराटता,व्यापकता तथा विविधता धारे हुए है। इसमें दो प्रकार के चित्र प्राप्त होते हैं-काल एवं ऋतुएँ । काल वर्णन में प्रभात एवं अपराह्न के चित्र प्राप्त होते हैं तो ऋतु वर्णन में शिशिर, ग्रीष्म एवं वर्षा के । इन प्रधान चित्रों के अतिरिक्त विभिन्न अवसरों पर अलंकारों के रूप में प्रकृति विद्यमान है। वास्तविकता यह है कि प्रस्तुत कृति का अभिनय' प्रकृति के प्रांगण में ही सम्पन्न होता है। अत: इस कृति का 'स्थान' प्रकृति ही है। प्रकृति चित्रण के प्रसंग में प्रथम चित्र हैं काल के । प्रभात बेला के रूप-वर्णन से ही कृति का आरम्भ होता है। यह पूरा वर्णन मूल से ही देखने योग्य है। सूर्योदय के साथ कुमुदिनी की पाँखुरियों के सिमटने पर आचार्यजी ने अपनी कोमल कल्पनाशीलता के सहारे एक रंगीन समाँ बाँधा है । प्रभाकर के स्पर्श से बचने के लिए कुमुदिनी मानो लज्जा के यूंघट में छिप जाती है, ताराएँ अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे दिगन्त में इसलिए छिपती हैं कि दिवाकर उन्हें कहीं
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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