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________________ 68 :: मूकमाटी-मीमांसा वर्षाकाल के चित्र हैं। काल वर्णन से ऋतु वर्णन अधिक लम्बे और विस्तृत हैं। इनमें भी वर्षा का वर्णन सर्वाधिक विस्तृत है। इस प्रबन्धकाव्य के तीसरे खण्ड का आरम्भ ही वर्षा वर्णन से होता है और वह पूरे खण्ड को ही व्याप लेता है। शिल्पी ने कुंकुम-सम मृदु माटी में पानी डाला है । माटी फूल रही है । माटी और पानी एकमेक हो गए हैं। शिल्पी अपने काम में निमग्न है कि शीतकाल का आगमन होता है। सर्वत्र हिमपात हो रहा है। ठण्डी हवा बह रही है। शिशिर ऋतु के कारण लताओं का रंग पीला हो गया है । कँपकँपी फैल रही है । दाँत बज रहे हैं। दिन में भी सिकुड़न आ गई है। इस काल में दोपहरी में भी सूर्य नतमाथ है। सर्वत्र हिम का बोलबाला है । शनि की खनी, भय-मद-अघ की जनी रात दुगुनी हो गई है। यह काल सबको अखर रहा है। लेकिन इसका शिल्पी पर कोई असर नहीं है। वह तो प्रकृति से जुड़ा हुआ है । शीतल शीलवाला है । इस स्थिति का निष्कर्ष ध्यातव्य है : "पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ. ९३) शीतकाल के यथातथ्य, सरल, बाह्य चित्रण से जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है, वह आचार्यजी की चिन्तनशील प्रकृति का परिचायक है । यह तथ्य पूरी कृति में सर्वत्र व्याप्त है । शीतकाल के समाप्त होते-होते शिल्पी ने कुम्भ की निर्मिति की है तथा उसे सुखाया भी है, लेकिन कुम्भ में अभी जलत्व शेष है । वसन्त की समाप्ति के साथ ग्रीष्म काल प्रारम्भ हो गया है । सूर्य का प्रचण्ड आतप है, धूप चिलचिला रही है, पृथ्वी का पेट मानो फट गया है, हवाएँ आग उगल रही हैं। पानी के क्षेत्र ऐसे सूख गए हैं कि नदी दीन बन गई है, नालियाँ धरती में लीन हो गई हैं। अब सूर्य को अपनी यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लगता है, उसकी गति में शिथिलता आ गई है, अत: दिन बड़े हो गए हैं । ग्रीष्म के प्रभाव के कारण धरती की हरियाली समाप्त हो गई है, लतिकाओं में फल नहीं हैं, हवा रुक गई है, फूलों की मुस्कान समाप्त हो गई है, परिणामत: मधुपों का गुंजन भी समाप्त हो गया है। फिर राग-पराग कहाँ, महक-चहक कहाँ ? मृतप्राय-सी प्रतीत होनवाली धरती में अब भी जीवन शेष है। यह सही है : "बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का,/विलय हो नहीं सकता/और बिना तप के जलत्व का, वर्षा का,/उदय हो नहीं सकता।” (पृ. १७६) ग्रीष्म की तपन के इस यातनामय काल में आकाश में बादल छा जाते हैं। धारासार वर्षा हो रही है। धरती ने पानी के मोह से वर्षा का स्वागत ही किया । वह लुट गई, वसुंधरा नहीं रही। धरती के वैभव को बहा ले जाकर ही सागर रत्नाकर बन गया है। मुनिजी ने प्रलय वर्षा का ऐसा श्रेष्ठ वर्णन किया है कि आप की प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। माटी के कुम्भ को समाप्त करने के लिए वर्षा की अनवरत झड़ी चल रही है। सूर्य अपने आतप द्वारा बादलों को रोकने का प्रयास कर रहा है, लेकिन वर्षा के मल सागर से बराबर अधिक भयानक बादल तैयार होकर आक्रमण कर रहे हैं, चन्द्रमा सागर को उकसा रहा है । यहाँ बादलों और सूर्य के बीच बराबर संघर्ष जारी है, आक्रमण प्रत्याक्रमण हो रहे हैं। कभी एक पक्ष विजय की ओर बढ़ता है, तो कभी दूसरा । सूर्य बादलों को समझा रहा है, लेकिन बादल अपना आक्रमण और अधिक तेज, और अधिक भयानक कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह वर्षा रुकेगी नहीं, प्रलय होगी और सब कुछ उसमें स्वाहा हो जाएगा । सूर्य के प्रयासों के बावजूद बादलों का आक्रमण और प्रखर बन रहा है । तीन बादल तैयार होते हैं। उनमें से एक इतना काला है कि भ्रमरों ने भ्रमवश अपने साथियों का साथ छोड़ दिया है। दूसरा बादल विष उगलते हुए विषधर-सम नीला है, जो पके पीले धान के खेत को हरिताभ बना रहा है। तीसरा बादल कबूतर के रंग का है । इस अपूर्व, विनाशकारी युद्ध का आतंक इतना ज़बरदस्त है कि तीनों बादल चाण्डाल-सम लगते हैं। प्रचण्ड शीतवाले, घमण्डी, निष्ठुर, कलही बादलों से भयभीत होकर अमावस्या एक महीने में एक बार ही घर छोड़कर बाहर आती है । मोहभूत के वश होने से ये बादल किसी के वश में नहीं आते । सही है, दुराशयी, दुष्ट, दुराचारी,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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