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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 53 "सारेग'म यानी/सभी प्रकार के दुःख प"ध यानी ! पद-स्वभाव/और नि यानी नहीं,/दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह।” (पृ. ३०५) सेवक कुम्भ समूह का परीक्षण-निरीक्षण कर एक-दो लघु तथा एक-दो गुरु कुम्भ चुन लेता है । सेठ सोल्लास आसन से उतरकर सेवक के हाथ से कुम्भ को अपने हाथ में ले लेता है। उसे ताजे शीतल जल से धोता है । दाएँ हाथ की अनामिका से मलायाचल के चारु चन्दन से कुम्भ पर चारों ओर स्वस्तिक अंकित करता है और प्रति स्वस्तिक की चारों पाँखुरियों में कश्मीर-केसर मिश्रित चन्दन से चार-चार बिन्दियाँ लगा देता है। प्रत्येक स्वस्तिक के मस्तक पर चन्द्र बिन्दु समेत ओंकार लिखता है। हल्दी की दो पतली रेखाओं से कुम्भ का कण्ठ शोभित करता है। कुम्भ के मुख पर चार-पाँच खाने के पान तथा उनके बीचोंबीच एक श्रीफल रखा जाता है । कुम्भ के गले में शुद्ध स्फटिकमणि की माला डाली जाती है। इस प्रकार सज्जित मांगलिक कुम्भ अष्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर रखा जाता है। इसके अनन्तर जैन मुनि को आहार दान देने का विस्तृत विवरण है। नगर के प्रति मार्ग में अड़ोस-पड़ोस में आमने-सामने अपने-अपने प्रांगण में सुदूर तक दाताओं की पंक्ति खड़ी है । प्रत्येक की भावना है कि उसी के यहाँ अतिथि का आहार निर्विघ्न सम्पन्न हो । पूजन कार्य से निवृत्त सेठ भी अपने प्रांगण में माटी का मंगल कुम्भ लेकर अतिथि सत्कार के लिए विद्यमान है । अतिथि सेठ के ही प्रांगण में आकर रुकते हैं। स्वादिष्ट दुग्ध से भरा स्वर्ण कलश, मधुर इक्षु रस से भरा रजत कलश, अनार के लाल रस से भरी स्फटिक झारी आदि आगे बढ़ाए जाते हैं। अतिथि उधर दृष्टि नहीं डालते । उनकी अँजुलि ग्रहण करने के लिए नहीं खुलती। जब सेठ माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाता है तो अतिथि की अँजुलि खुल पड़ती है। ‘स्वर्ण कलश' अपने को मूल्यहीन तथा उपेक्षित देखकर भीतर से जलता, घुटता है । बदला लेने की भावना से भरकर वह सेठ को परिवार सहित समाप्त करने का षड्यन्त्र रचता है। 'आतंकवाद' को आमन्त्रित करता है । स्वर्ण कलश की अपने सहचरों-अनुचरों से गुप-चुप मन्त्रणा होती है । दिन और समय निश्चित हो जाता है। निश्चित होता है कि आज 'आतंकवाद का दल' आधी रात में आपत्तियों की आँधी लेकर आएगा । मगर इसी बीच 'स्वर्ण कलश' के अपने ही दल में एक असन्तष्ट दल का निर्माण हो जाता है । इस असन्तष्ट दल की संचालिका स्फटिक की उजली झारी है। 'झारी' का प्रभाव रौद्रकर्मा स्वर्ण कलश पर नहीं पड़ता । स्वर्ण कलश के अनियन्त्रित क्षोभ को पहचानकर 'झारी' माटी के कुम्भ को संकेतित करती है और कुम्भ सेठ परिवार को सचेत करता है । अड़ोस-पड़ोस की निरपराध जनता इस चक्रवात के चक्कर में आकर कहीं फँस न जाए, इसी सदाशयता के साथ कुम्भ सेठ को परिवार सहित तुरन्त घर से निकल जाने के लिए कहता है । और तदनुसार पूरा परिवार प्रासाद के पिछले पथ से पलायन कर जाता है । सेठ के हाथ में पथ प्रदर्शक कुम्भ है । पुर-गोपुर पार कर वे घने वन में लीन हो जाते हैं। वहाँ भी आतंकवाद का दल आ पहुँचता है। उनके हाथों में हथियार हैं। वे बार-बार आकाश में वार कर रहे हैं जिससे बिजली-सी ज्वाला कौंध उठती है । वे बार-बार होंठों को चबा रहे हैं, क्रोधाविष्ट हो रहे हैं। गजदल एवं नाग-नागिनियाँ सेठ परिवार की रक्षा के लिए उद्यत होते हैं। उनके द्वारा स्वयं आतंकवाद चारों ओर से घिर जाता है । यह पहली घटना है जिसमें आतंकवाद ही स्वयं आतंकित हो जाता है। इसके अनन्तर भीषण प्रलयकालीन परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। घनी-घनी मेघों की घटाएँ गगनांगन में तैरने
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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