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________________ 52 :: मूकमाटी-मीमांसा पर भी एक भी ओला नीचे आकर 'कुम्भ' को भग्न नहीं कर पाता। नए-नए बादलों का आगमन, नूतन ओलों का उत्पादन, बीच-बीच में बिजली की कौंध, संघर्ष का उत्कर्षण - प्रकर्षण आदि के बावजूद बादलों ओलों की हार हो जाती है, भूकणों की जीत । कई दिनों बाद निरभ्र नील नभ का दर्शन होता है । भानु की आभा से अणु-अणु, कण-कण, वनउपवन और पवन सब ज्योतित हो उठते हैं। रजविहीन सूरज सहस्रों करों को फैलाकर सुकोमल किरणांगुलियों से शिल्पी की पलकों को सहलाता है। कुम्भकार स्वस्थ अवस्था की ओर लौटता है । कुम्भकार अपक्व कुम्भ की परिपक्व अवस्था को देखकर एक ओर आश्चर्यचकित होता है तथा दूसरी ओर आश्वस्त । उसे विश्वास है कि अब कुम्भ को आगे भी पूरी सफलता मिलेगी । आगे की यात्रा के बारे में वह कुम्भ से कहता है : "और सुनो ! / आग नदी को भी पार करना है तुम्हें, वह भी बिना नौका ! / हाँ ! हाँ !! / अपने ही बाहुओं से तैर कर, तीर मिलता नहीं बिना तैरे ।" (पृ. २६७) इस पर कुम्भ कहता है : " निरन्तर साधना की यात्रा / भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर / बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए / अन्यथा, वह यात्रा नाम की है / यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७ ) खण्ड : चार- 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' अब अविलम्ब अवधारित अवधि में कुम्भ को तपाने के लिए अवा के अन्दर पहुँचाना है। अवा को साफ़-सुथरा बनाया गया है । अवा के निचले भाग में बड़ी-बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी गाँठ वाली बबूल की लकड़ियाँ एक के ऊपर एक सजाई गई हैं। लाल पीली छालवाली नीम की लकड़ियों से उन्हें सहारा दिया गया है। शीघ्र आग पकड़ने वाली देवदारु जैसी कड़ियाँ बीच-बीच में बिछाई गई हैं। धीमी-धीमी जलने वाली सचिक्कण इमली की लकड़ियाँ अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की गई हैं। अवा के बीचोंबीच कुम्भ समूह अवस्थित किया गया है । अवा के मुख पर दबा-दबाकर रवादार राख और माटी बिछाई गई है जिससे बाहरी हवा का कोई अंश अवा के अन्दर न जा सके। अवा की उत्तर दिशा में उसके निचले भाग में एक छोटा-सा द्वार है । इस द्वार पर आकर कुम्भकार नौ बार नवकार मन्त्र का उच्चारण करता है और एक छोटी-सी जलती लकड़ी से अवा में आग लगाता । आग बुझ जाती है। वह बार-बार आग लगाता है और आ बार-बार बुझ जाती है। कुम्भ अग्नि से प्रार्थना करता है तथा कहता है किसी के दोषों को जलाना ही उसको जिलाना है । स्व- पर दोषों को जलाना तो सन्तों ने परम धर्म माना है। अग्नि को कुम्भ का आशय विदित हो जाता है। सुर- सुराती सुलगती अग्नि समूचे अवा को अपनी चपेट में ले लेती है। कुम्भ, कुम्भक प्राणायाम करता है जो ध्यान की सिद्धि में साधकतम है। धीरे-धीरे धूम का उठना बन्द होता है, आत्मा उज्ज्वल होने लगती है। कुम्भकार सोल्लास पकेको बाहर निकालता है । कुम्भ के मुख पर मुक्तात्मा-सी प्रसन्नता व्याप्त है । तपे कुम्भ उधर नगर का महासेठ सपना देखता है कि वह हाथों में माटी का मंगल कुम्भ ले अपने ही प्रांगण में भिक्षार्थी महासन्त का स्वागत कर रहा है। वह अपने स्वप्न की बात अपने परिवार के सदस्यों को बता देता है । वह अपना एक सेवक कुम्भकार के पास कुम्भ लाने के लिए भेजता है। सेवक कुम्भ को हाथ में लेकर सात बार बजाता है जिससे सप्त स्वरों का उद्घोष होता है, जो मानो प्रतीकार्थ रूप में भावाभिव्यंजना करते हैं :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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