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मूकमाटी-मीमांसा :: 51 है। शान्त रस पर बल देती हुई माटी की रौंदन क्रिया भी पूरी होती है। शिल्पी धरती में गड़ी लकड़ी की कील पर, हाथ में दो हाथ की लम्बी लकड़ी ले, अपने चक्र को घुमाता है । घूमते चक्र पर माटी का लोंदा रखता है। लोंदा भी चक्रवत् तेज गति से घूमने लगता है । वह धीरे-धीरे कुम्भ का आकार-आकृति पा जाता है । मान घमण्ड से अछूती माटी पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढल जाती है । इसके बाद वह कुम्भ पर कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं का अंकन करता है, विचित्र चित्रों का चित्रण करता है तथा कविताओं का सृजन करता है । अभी शिल्पी को कुम्भ में शेष जलीय अंश को निश्शेष करना है । इसके लिए कुम्भकार कुम्भ को तपी हुई खुली धरती पर रखता है। खण्ड : तीन – 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन'
किसी कारणवश कुम्भकार को बाहर जाना पड़ता है। कुम्भकार की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर सागर से गागर भर-भर कर गगन की गली में अबला-सी बदलियाँ निकल पड़ती हैं। ये बदलियाँ पृथ्वी पर प्रलय करना चाहती हैं। प्रभाकर इनको अपने प्रवचन द्वारा उद्बुद्ध करता है । पुण्य का उदय होता है । जल को मुक्ति मिलती है । मेघों से मेघ मुक्ता का अवतार होता है । कुम्भकार के प्रांगण में अपक्व कुम्भों पर मुक्ता वर्षा होती है। बात चारों तरफ फैल जाती है। राजा के कानों तक इस आश्चर्यजनक घटना का संवाद पहुँचता है। राजा अपनी मण्डली के साथ मुक्ता राशि को बोरियों में भरकर ले जाने के लिए आ पहुँचता है। ज्यों ही मण्डली मुक्ता राशि को बोरियों में भरने के लिए नीचे झुकती है कि गगन में गुरु गम्भीर गर्जना होती है :
"अनर्थ "अनर्थ "अनर्थ !/पाप"पाप"पाप !
क्या कर रहे आप?/परिश्रम करो/पसीना बहाओ।" (पृ. २११) कर्णकटु अप्रिय व्यंग्यात्मक वाणी सुनकर भी मण्डली हाथ पसारती है मगर मुक्ता को छूते ही बिच्छू के डंक की-सी वेदना से उनकी काया छटपटाने लगती है। एड़ी से चोटी तक सब में विष व्याप्त हो जाता है । मुग्धा मण्डली मूर्च्छित हो जाती है । सबकी देहयष्टि नीली पड़ जाती है।
__ यह सब देखकर राजा का मन भी भयभीत हो जाता है । उसे यह अनुभूत होता है कि किसी ने मन्त्रशक्ति के द्वारा उसे कीलित कर दिया है। उसे प्रतीत होता है कि उसके हाथों ने हिलना बन्द कर दिया है; पैरों ने चलना बन्द कर दिया है; आँखों से धुंधला दिखाई पड़ रहा है; कानों ने सुनना बन्द कर दिया है; मन में प्रतिकार की भावना होने पर भी वह प्रतिकार करने में असमर्थ है।
इसी बीच कुम्भकार का प्रत्यागमन होता है । इस दृश्य को देखकर शिल्पी की आँखों में विस्मय-विषाद-विरति की तीन रेखाएँ खिंच जाती है। कुम्भकार मन्त्रित जल के सिंचन से मण्डली की मूर्छा दूर करता है । मूर्छा दूर होते ही मण्डली मुक्ता से दूर भाग खड़ी होती है । कुम्भकार सारी मुक्ता राशि राजा को ही प्रदान कर देता है । मुक्ता की दुर्लभ निधि से राजकोष और अधिक समृद्ध हो जाता है।
धरती की बढ़ती कीर्ति देखकर सागर का क्षोभ पल भर में चरम सीमा छूने लगता है। उसकी भृकुटियाँ तन जाती हैं । पृथ्वी पर प्रलय करना उसका प्रमुख लक्ष्य हो जाता है । सागर में से क्रम-क्रम से वायुयान-सम क्षार पूर्ण नीर भरे बादल अपने-अपने दलों सहित आकाश में उड़ने लगते हैं। सागर राहू को अपने पक्ष में कर लेता है । सूर्यग्रहण होता है। बिजलियाँ कौंधती हैं। इन्द्र आवेश में आकर अपना अमोघ अस्त्र वज्र निकालकर बादलों पर फेंक देता है । वज्राघात होता है । बादल स्वाभिमान से सचेत ओलों का उत्पादन प्रारम्भ कर देते हैं । ओलों से सौरमण्डल भर जाता है। भू-कणों के ऊपर अनगिनत ओले प्रतिकार के रूप में अपने बल का परिचय देते हुए निर्दय होकर टूट पड़ते हैं। मगर इतना होने