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50 :: मूकमाटी-मीमांसा
में बदला लेने की सोचता है। कवि का कथन है कि मन की छाँव में ही मान पनपता है। मन का माथा नमता नहीं है। जब 'मन' नहीं होता तब कहीं नमन होता है। माटी के समझाने पर वह अपनी यह आकांक्षा व्यक्त करता है कि कम सेक शिल्पी को अपनी भूल के लिए क्षमा-याचना तो करनी चाहिए। शिल्पी के मुख से पीयूष भरी वाणी निकलती है :
" खम्मामि, खमंतु मे - / क्षमा करता हूँ सबको, / क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा - सहज बस / मैत्री रहे मेरी !" (पृ. १०५ )
शिल्पी की क्षमा-याचना काँटे की सनातन चेतना को प्रभावित करती है। उसके क्रोध भाव का शमन एवं प्रतिशोध भाव का वमन होता है तथा उसमें बोध भाव का आगमन होता है। इसके अनन्तर वह सहज - अनायास शोध भाव को नमन करता है। उसके इस परिवर्तन से उसके मन में जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं जिनका सम्यक् समाधान शिल्पी करता है । इसके अनन्तर शिल्पी को फूली माटी को रौंद - रौंदकर उसका लोंदा बनाना है तथा उसमें अधिकाधिक स्निग्धता का संचार करना है। सर्वप्रथम शिल्पी का दाहिना चरण मंगलाचरण करता हुआ शनैः-शनैः ऊपर उठता हुआ माटी के माथे पर उतरता है । माटी शिल्पन-चरण का स्वागत करती हुई अपना माथा उमर उठाती है। रौंदन क्रिया की गति बढ़ती है। शिल्पी के पद आजानु तक माटी की गहराई में डूबते हैं। माटी पुरुष शिल्पी की पुष्ट पिण्डरियों से लिपटती है । महासत्ता माटी की बाहुओं से 'वीर रस' फूटता है। वीर रस की अनुपयोगिता और उसके अनादर को देखकर महासत्ता माटी के अधरों से 'हास्य रस' ठहाका मारता है । हास्य रस की दाल नहीं गलती, उसकी चाल नहीं चल पाती। इस कारण वह अपनी करवट बदल लेता है तथा अन्य रस- साथी का स्मरण करता है । महासत्ता माटी के भीतर रसातल में उबलता कराल काला 'रौद्र रस' जागता है। निर्भीक शिल्पी सौम्य मुद्रा में रौद्र से कहता है कि रुद्रता विकार है और विकार को समेटना, हटाना, नष्ट करना ही उपयुक्त होता है। इसके बाद 'भय रस' का वर्णन है । भय एवं अभय के द्वन्द्व में मति अभया बनती है । 'विस्मय' 'वीर' को अबीर के रूप में, 'रौद्र' को रुग्ण पीड़ित के रूप में और 'भय' को भयभीत के रूप में पाकर बहुत अधिक विस्मित होता है। इसके बाद आता है- शृंगार । शृंगार का नया स्वरूप अभिव्यंजित है। शिल्पी के शब्द हैं :
"संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है
और/प्रति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।” (पृ. १४४-१४५)
स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुनकर श्रृंगार के बहाव में बहने वाली प्रकृति की नासा बहने लगती है जिससे 'बीभत्स रस' का उदय हो जाता है तथा ऐसा लगता है मानों बीभत्स रस ने शृंगार को नकार दिया है। श्रृंगार एवं बीभत्स के द्वन्द्व से आहत प्रकृति में करुणा का संचार होता है। शिल्पी करुणा को समझाता है कि करुणा के होने में नहीं अपितु करुणा के करने की सीमित सार्थकता है । करुणा की अपनी उपादेयता है मगर उसकी सीमा भी है। 'करुणा रस' में 'शान्त रस' का अन्तर्भाव मानना बड़ी भूल है । करुणा रस एवं शान्त रस की प्रकृतियों में अन्तर है :
'करुणा तरल है, बहती है / पर से प्रभावित होती झट-सी ।
शान्त-रस किसी बहाव में / बहता नहीं कभी / जमाना पलटने पर भी जमा रहता है अपने स्थान पर ।" (पृ. १५६ - १५७)
महासत्ता माँ के गोलगोल कपोल तल पर वात्सल्य पुलकित होता है। करुणा, वात्सल्य एवं शान्त- तीनों में अन्तर है । करुणा रस जीवन का प्राण है, वात्सल्य रस जीवन का त्राण है और शान्त रस जीवन का गान है। आचार्य ने श्रृंगार को नहीं, शान्त रस को रस-राज माना है, क्योंकि आत्मोदय की भूमिका पर सब रसों का अन्त होना ही शान्त रस