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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 49 "कर्मों का संश्लेषण होना,/आत्मा से फिर उनका/स्व-पर कारणवश विश्लेषण होना,/ये दोनों कार्य/आत्मा की ही ममता-समता-परिणति पर/आधारित हैं।" (पृ. १५-१६) आत्मा रूपी माटी इस ज्ञान चेतना के बाद अपनी यात्रा का सूत्रपात करती है । आत्मा का साक्षात्कार आत्मा के द्वारा ही सम्भव है । आत्मा के ही ये दो पक्ष प्रस्तुत कथा में माटी' एवं 'कुम्भकार' के द्वारा अभिव्यंजित हैं, प्रतीक रूप में वर्णित हैं। कुछ विद्वान् 'माटी' को नायिका तथा 'कुम्भकार' को नायक के रूप में रखकर कथा की व्याख्या कर सकते हैं अथवा इनके आध्यात्मिक प्रतीकार्थ रूप में नायक को परब्रह्म, पुरुषोत्तम, अन्तर्यामी, अज, अनन्त, अद्वैत, परमानन्द रूप तथा नायिका को जगत् उत्पादिका शक्ति के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास कर सकते हैं मगर जैन दर्शन की भूमिका पर यह आत्मा के द्वारा आत्मा का अन्वेषण है; आत्मा के द्वारा आत्मा का नियन्त्रण है; आत्मा के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार है; आत्मा के द्वारा आत्मा से अनात्मभूत कषायों को दूर करना है। कुम्भकार एक कुशल शिल्पी है। उसका शिल्प कण-कण के रूप में बिखरी माटी को नाना रूप प्रदान करता है। शिल्पी कुम्भकार अपने कार्य का समारम्भ ओंकार को नमन करके करता है । अध्यात्म यात्रा की सबसे बड़ी रुकावट 'मैं' की है। शिल्पी कुम्भकार साधना पथ पर चरण रखने के पहले ही अहंकार का विसर्जन कर चुका होता है । वह कुदाली से माटी खोदता है । पीड़ा की अति ही पीड़ा की इति बन जाती है । साधना में निशि-वासर कस कर परिश्रम किया जाता है । शिल्पी से क्षण-प्रतिक्षण शिक्षण-प्रशिक्षण मिलता है । इसका सीधा असर भीतरी जीवन पर पड़ता है। यह मार्ग जीवन के निर्वाह का नहीं, जीवन के निर्माण का है जहाँ अधोमुखी जीवन ऊर्ध्वमुखी हो उन्नत बनता है। शिल्पी बारीक तार वाली चलनी में माटी को छानता है। कंकर कण माटी से वियुक्त हो जाते हैं। कंकर समझते हैं कि उनमें तथा माटी में समता-सादृश्य है । शिल्पी उनको समझाता है । वर्ण-रंग की अपेक्षा से गाय का दूध भी धवल है तथा आक का दूध भी धवल है। ऊपर से दोनों विमल हैं। परन्तु उन्हें परस्पर मिलाते ही विकार उत्पन्न होता है । दूध फट जाता है। इसी प्रकार मिट्टी एवं कंकरों की प्रकृति एवं स्वभाव में भिन्नता है । कंकरों का माटी से मिलन तो हुआ मगर वे मिट्टी में मिल नहीं सके । माटी से उनका संग तो हुआ मगर वे मिट्टी में घुल नहीं सके । चलती चक्की में डालकर उनको पीसने पर भी वे भले ही चूर्ण बन जाते हैं, रेत बन जाते हैं मगर मिट्टी नहीं बन पाते, अपने गुण-धर्म को छोड़ नहीं पाते। जब पानी से भीगते हैं तो मिट्टी की भाँति वे फूलते नहीं, मिट्टी की भाँति उनमें नमी नहीं आ पाती। शिल्पी को माटी में जल मिलाकर उसे जल में घोलना है, माटी को फुलाना है । वह प्रांगण में कूप से पानी निकालने के लिए बालटी लेकर जाता है। पानी निकालने के काम में आने वाली रस्सी में एक गाँठ है । गाँठ का खोलना तो अनिवार्य है। इसका कारण यह है कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है और अहिंसा के पलने, पनपने एवं बल पाने के लिए निर्ग्रन्थ दशा का होना अनिवार्य है। इसलिए गाँठ का खोलना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है । शिल्पी रस्सी की गाँठ खोलकर, बालटी को रस्सी से बाँधकर धीमी गति से कूप में पानी भरने के लिए नीचे उतारता है। खण्ड : दो- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' शिल्पी कुंकुम-सम मृदु माटी में छना निर्मल जल मिलाकर माटी के जीवन में नूतन प्राण फूंकता है । माटी के प्राणों में जाकर पानी नव-प्राण पाता है। फूल-दलों-सी माटी पूर्णरूपेण फूलती है । माटी का यह फूलना ही चिकनाहट, स्नेहिल भाव का आदिम रूप मूलन है और रूखेपन का अर्थात् द्वेष-भाव का अभाव-रूप-उन्मूलन है । माटी के हर्ष की सीमा नहीं है किन्तु माटी को खोदते समय कुम्भकार की कुदाली एक काँटे को क्षत-विक्षत कर देती है । वह काँटा मन
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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