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________________ 48 :: मूकमाटी-मीमांसा दृष्टिकोण तो यह मानता है कि इन्द्रियों के द्वारा जो ग्राह्य होता है वही साहित्य का विषय बनता है । इस परिधि में तो आलोचक का कर्म अधिक से अधिक संवेदनात्मक जगत् की व्याख्या, विश्लेषण, विवेचना एवं मूल्यांकन करना ही हो सकता है। आचार्य विद्यासागर जैसे साधक जब काव्य सर्जन करते हैं तो उनका काव्य ऐसी सम्भावनाओं के द्वार खोलता है जहाँ लोकोत्तर अनुभूतियाँ झिलमिलाती नज़र आती हैं। इसका कारण यह है कि जब साधक कविता लिखता है, जब कवि-ब्रह्मा शब्दों से लोकों की सृष्टि करता है तब उसकी सारी अनुभूतियाँ ऐन्द्रियक ही नहीं, अपितु प्रज्ञात्मक' होती हैं, जो भावना एवं कल्पना से भी परे की होती हैं। उसकी अनुभूतियाँ 'लोकोत्तर' भी होती हैं जहाँ कोई 'चैतन्य शक्ति' सीधे ही 'वाक्' को प्राण, मार्मिकता, अर्थ तथा अस्तित्व प्रदान करती है और हमारा अन्तर्जगत् समस्त भौतिक प्रतिबन्धों को पार कर जाता है । पाश्चात्य आलोचना के मानदण्डों से इस प्रकार के काव्य की समीक्षा सम्भव नहीं है। मैं 'मूकमाटी' की कथा अभिधा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। उस कथा में स्थान-स्थान पर जो आध्यात्मिक प्रतीकार्थ एवं संकेत अभिव्यंजित हैं, उनको यदि हम छोड़ भी दें तो भी कथा अपने प्रस्तुत अर्थ में भी सूक्ष्म एवं विराट् भावभूमि को हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है । क्या कोई पश्चिमी कवि मूकमाटी पर महाकाव्य लिखने की कल्पना कर सकता है ? आचार्य विद्यासागर की आध्यात्मिक दृष्टि ही मूकमाटी के मंगल घट के रूप में परिवर्तित होने अर्थात् कर्मबद्ध आत्मा के परमात्मा बनने की जय यात्रा की साक्षी बन सकती है। यही दृष्टि पहचान पाती है तथा अनुभूत कर पाती है कि प्रत्येक सत्ता शाश्वत होती है। प्रतिसत्ता में उत्थान-पतन की अनगिनत सम्भावनाएँ होती हैं। अगर सागर की ओर दृष्टि जाती है तो सागर गुरु-गौरव-सा कल्पकाल वाला लगता है। अगर लहर की ओर दृष्टि जाती है तो वही सागर अल्पकाल वाला लगता है। एक ही वस्तु अनेक रंगों में रंगायित है, अनेक भंगों में भंगायित है । जीवन का चिर सत्य एवं चिर तथ्य यह है कि यहाँ आना-जाना-लगा हआ है। आना अर्थात जनन या उत्पाद है। जाना अर्थात् मरण या व्यय है। लगा हुआ अर्थात् स्थिर या ध्रौव्य है। संसार का चक्र वह है जो राग-द्वेष आदि वैभाविक अध्यवसान का कारण है । चक्री का चक्र वह है जो भौतिक जीवन के अवसान का कारण है । कुलाल चक्र वह है जिस पर जीवन चढ़कर अनुपम पहलुओं से निखर आता है । दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता । वह आत्मा का मोह कर्म से प्रभावित विभाव-परिणमन-मात्र है। 'स्व' को स्व के रूप में तथा 'पर' को पर के रूप में जानना ही सही ज्ञान है और 'स्व' में रमण करना ही सही ज्ञान का फल है । ज्ञान का पदार्थ की ओर ढुलक जाना ही परम आर्त पीड़ा है और ज्ञान में पदार्थों का झलक आना ही परमार्थ क्रीड़ा है। पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है, सार है । पुरुष का अन्यत्र रमना ही भ्रमना है, मोह है, संसार है । गुणों के साथ दोषों का बोध होना भी अत्यन्त आवश्यक है किन्तु दोषों से द्वेष रखना दोषों का विकसन है । प्रत्येक व्यवधान का सावधान होकर सामना करना नूतन अवधान को पाना है। 'मूकमाटी' महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है : खण्ड : एक- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' आत्मोदय के लिए साधना आवश्यक है । जब साधक की अँगुलियाँ आस्था के तारों पर साधना करने लगती हैं तब उसके सार्थक जीवन में स्वरातीत सरगम झरती है । आस्था के विषय को आत्मसात् करना हो, अनुभूत करना हो तो स्वयं को सहर्ष साधना के साँचे में ढालना होगा । पर्वत की तलहटी से उत्तुंग शिखर का दर्शन तो सम्भव है परन्तु अपने चरणों का प्रयोग किए बिना शिखर का स्पर्श सम्भव नहीं है । साधना के क्षेत्र में निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन की सम्भावना रहती है। साधक को आयास से डरना नहीं चाहिए, आलस्य नहीं करना चाहिए। कभी-कभी साधना के पथ में ऐसी भी घाटियाँ आ सकती है, जहाँ विषमता की नागिन साधक को सूंघ कर उसे गुमराह कर सकती है । इस प्रकार के सम्बोधन से 'माटी' अभिभूत होती है तथा उसके अन्तर्मन को यह बोध होता है :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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