SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भविष्यत् चेतना का महाकाव्य : 'मूकमाटी' ___ प्रो. (डॉ.) महावीर सरन जैन अध्यात्म साधना के द्वारा ज्ञानार्जन एवं आत्म परिष्कार कर, लोक कल्याण में निरत महापुरुषों का भारतीय जनमानस समादर करता आया है। सन्तों एवं मुनियों के माध्यम से हमारे देश में संस्कृति एवं नैतिक मूल्यों के आचरण की अजस्र धारा निरन्तर प्रवहमान रही है। इसी धारा में अवगाहन कर कोटि-कोटि जनों ने अपनी वृत्तियों का परिष्कार करने की प्रेरणा प्राप्त की है। जीवन में नैतिक मूल्यों की पुनःस्थापना होती रही है। जीवन पाशविकता से मानवीयता की ओर अभिमुख होता रहा है। श्रमण संस्कृति का एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है । संयम की साधना का सहज आचरण श्रमण-साधुओं का वैशिष्ट्य रहा है । श्रम करने वाला श्रमण है और श्रम का भाव है-तपस्या करना । श्रमण का व्युत्पत्यर्थ ही इसकी परम्परा के स्वरूपगत वैशिष्ट्य को प्रकट कर देता है । यह अकर्मण्य, भाग्यवादी एवं भोगवादी नहीं, अपितु मानव के पुरुषार्थ की परीक्षा करने वाली, कर्म में विश्वास रखने वाली तथा अपनी ही साधना एवं तपस्या के बल पर 'तीर्थ' का निर्माण कर सकने की भावना में विश्वास रखकर तदनुरूप आचरण करने वाली साधना परम्परा है। जैन तीर्थंकरों ने 'अर्हन्त' होकर धर्म का उपदेश दिया । जब जीव कर्मों से पृथक् होने का उपक्रम कर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों से अपने को पृथक् कर लेता है, तब वह केवलज्ञानी' हो जाता है और उसे अर्हन्त' संज्ञा की प्राप्ति होती है । आत्मार्थी साधक आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों परिग्रहों का त्याग करता है, समभाव की आराधना करता है । राग-द्वेषातीत होकर कोई भी व्यक्ति सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र से युगों-युगों के कर्मबन्धन काट फेंकता है। ___ आधुनिक युग में आचार्य विद्यासागर इसी परम्परा के एक जीवन्त प्रतीक हैं। वे श्रुत सम्पन्न भी हैं तथा शील सम्पन्न भी। उनमें ज्ञान की गरिमा है किन्तु उसका अहंकार नहीं। वे आगम साहित्य के गम्भीर ज्ञाता एवं तलस्पर्शी विद्वान् हैं किन्तु उनकी जिज्ञासा वृत्ति सदैव प्रवहमान रहती है। वे ज्ञान के आगर होते हुए भी ज्ञान के जिज्ञासु हैं । वे जगत् के प्रपंचों से विरत, निस्पृह श्रमण, निराकांक्ष रहकर आत्मसाधना में निरत आत्मद्रष्टा तथा ध्यान-साधना के योगी हैं। उनकी सरलता, सहजता तथा स्नेह-सौहार्द से आह्लादित रहने वाली मुखमुद्रा किसी भी दर्शक को अनायास अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । यही सजग, सतेज साधक आचार्य विद्यासागर ललित काव्यकला के सर्जक भी हैं। 'नर्मदा का नरम कंकर', 'डूबो मत, लगाओ डुबकी', 'तोता क्यों रोता?' एवं 'चेतना के गहराव में उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। इधर इनका 'मूकमाटी' शीर्षक महाकाव्य प्रकाशित हुआ है । 'मूकमाटी' आत्मोदय का महाकाव्य है, कुलाल चक्र पर चढ़कर जीवन के अनुपम पहलुओं से निखर आने की गाथा है, पावन जीवन के शान का इतिवृत्त है। 'मूकमाटी' एक ओर आत्मशक्ति का तो दूसरी ओर भूमण्डल की शक्ति का प्रतीक है । सौरमण्डल और भूमण्डल के द्वन्द्व में भूमण्डल की ही विजय निश्चित है । सौरमण्डल में भले ही अणु की शक्ति काम करे मगर भूमण्डल में मनु की शक्ति विद्यमान है। आचार्यश्री की आस्था है कि अणु से अधिक श्रेयस्कर मनु की शक्ति है; यन्त्र से अधिक मन्त्र की शक्ति है; विज्ञान की मारक शक्ति से अधिक आस्था की तारक शक्ति है । इस कारण यह अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म और अधिक विराट् जीवन चेतना के विकास की व्याख्या एवं प्रतिध्वनि का महाकाव्य है । इसका फलक जहाँ एक ओर आत्मशक्ति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप को समेटता है वहीं दूसरी ओर माटी की विराट् शक्ति की जय गाथा प्रस्तुत करता है। इस कृति का मूल्यांकन करते समय सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि मूल्यांकन के प्रतिमान क्या हों ? पश्चिमी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy