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२. " तभी कहीं चेतन - आत्मा / खरा उतरेगा '
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३. "बचना चाहती है वह; / अपनी पराग को । ”
४. “ उत्तुंग शिखर का / दर्शन होता है । "
अनेक स्थलों पर न के स्थान 'ना' का प्रयोग किया गया है ।
गीतात्मकता
संगीतात्मकता और उसके अनुरूप सरस प्रवाहमयी कोमलकान्त पदावली, संक्षिप्तता और भावों की एकता, गीत के प्रमुख तत्त्व होते हैं । 'मूकमाटी' कार ने गीतों का प्रयोग नहीं किया । सम्पूर्ण काव्य मुक्त छन्द में है, फिर भी लयात्मकता उसमें भरपूर है। सामान्यतः पाठकों में यह धारणा प्रभावी है कि मुक्त छन्द गद्य का ही टेढ़ी-मेढ़ी, छोटीबड़ी पंक्तियों में कविता में रूपान्तरण है । यह धारणा भ्रान्त है । कविता का सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय से होता है और वह लयात्मक गति से सम्बद्ध होती है। लय ही कविता के प्राण हैं। छन्दों की सृष्टि में लय ही मूल में है। मुक्त छन्द होने पर भी कविता लय से मुक्त नहीं होती । 'परिमल' की भूमिका में निराला ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।
खड़ी बोली काव्य में पन्त ने कोमल पद- शैय्या का प्रयोग किया है और प्रगीतात्मक गति तथा लय का संचार किया है । निराला ने समासान्त पद योजना द्वारा उदात्त एवं गम्भीर संगीत की सृष्टि की है । पन्त के छन्दों की गति मन्द, मन्थर गति से बहते झरने की -सी है किन्तु निराला ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'धारा' के समान ही अपने छन्दों में निर्बाध गति भर दी है। प्रसाद मुक्त छन्द की गति, लय, गूंज और संगीत को जानते, पहचानते थे और उसके वे सफल प्रयोक्ता
थे ।
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(पृ.५७)
(पृ. २)
(पृ. १०)
प्रगतिवादी, प्रयोगवादी एवं नई कविता के कवियों में गिरिजाकुमार माथुर ने मुक्त छन्द के रोमानी परिवेश का सुन्दर प्रयोग किया है और इसकी गूंज शकुन्तला माथुर के मुक्त छन्दों में भी सुनाई पड़ती है ।
'मूकमाटी' के छन्द मुक्त हैं किन्तु गीतात्मकता उनमें भरपूर है । अनेक स्थलों में तो गीत स्वयमेव उपस्थित हो गए हैं, यथा :
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मूकमाटी-मीमांसा :: 45
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“जिन आँखों में / काजल - काली / करुणाई वह / छलक आई है, कुछ सिखा रही है - / चेतन की तुम / पहचान करो ! जिन-अधरों में/प्रांजल लाली / अरुणाई वह / झलक आई है, कुछ दिला रही है - / समता का नित / अनुपान करो जिन गालों में / मांसल वाली / तरुणाई वह / दुलक आई है, कुछ बता रही है - / समुचित बल का / बलिदान करो ।” (पृ. १२८)
“नया मंगल तो नया सूरज / नया जंगल तो नयी भू-रज
नयी मिति तो नयी मति / नयी चिति तो नयी यति नयी दशा तो नयी दिशा / नयी मृषा तो नयी यशा नयी क्षुधा
नयी तृषा / नयी सुधा तो निरामिषा । " (पृ. २६३ ) "जय हो ! जय हो ! जय हो ! / अनियत विहारवालों की नियमित विचारवालों की, / सन्तों की गुणवन्तों की
सौम्य - शान्त - छविवन्तों की / जय हो ! जय हो ! जय हो !" (पृ. ३१४-३१५)