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44 :: मूकमाटी-मीमांसा
५. “ सदय बनो ! / अदय पर दया करो / अभय बनो ! / सभय पर किया करो अभय की
अमृत-मय वृष्टि/सदा-सदा सदाशय दृष्टि / रे जिया, समष्टि जिया करो !” (पृ. १४९) ६. अनेक स्थानों पर कवि ने हिन्दी और उर्दू शब्दों का सुन्दर समन्वय उपस्थित किया है, यथा : १. " इस पर प्रभु फर्माते हैं... ।” (पृ. १५०)
२. “मित्रों से मिली मदद ।” (पृ. ४५९)
३. “सही मूल्यांकन गुम होता है।” (पृ. १०९)
'मूकमाटी' की भाषा सरल है, सरस है । उसमें प्रवाह है, गति है । अनुप्रासों का प्रयोग कवि ने अधिकता से किया है, यथा :
१. " धृति धारिणी धरती ।" (पृ. ७)
२. "आस्था की अराधना में / विराधना ही सिद्ध होंगी !" (पृ. १२ )
३. “ पल-पल पत्रों की करतल - तालियाँ / ... पल भर भी पली नहीं ।" (पृ. १७९)
४. “कठोर, कर्कश, कर्ण- कटु / शब्दों की मार सुन / दशों दिशाएँ बधिर हो गईं ।” (पृ. २३२)
५. “चम चम चम चम / चमकने वाली चमचियाँ ।” (पृ. ३५६ )
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वर्ण विपर्यय, शब्द भंग अथवा विलोम शब्दों के माध्यम से कवि ने स्थल-स्थल पर चामत्कारिकता लाने का प्रयत्न किया है, यथा :
"या ं द ं"द ं"या” (पृ. ३८), “रा ं'ख ं'ख''रा” (पृ. ५७), "रा" ही "ही "रा" (पृ. ५७), “ला’"भ ंभ"ला” (पृ. ८७), "मर, हम 'मरहम " (पृ. १७५), "न दीदी न” (पृ. १७८), "साधन ...सा धन” (पृ. २३७), "धरती तीरध" (पृ. ४५३) ।
अन्य अलंकारों का संयत प्रयोग 'मूकमाटी' में
स्थल - स्थल पर मिलता है, यथा :
१.
" बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं ।" (पृ. १०६) २. " पापड़ - सिकती-सी काया सब की ।" (पृ. २१२ )
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उपमा
३. “सरिता से उछले हुए / सलिल-कणों के शीतल परस पा
आतंकवाद की मूर्च्छा टूटी / फिर क्या पूछो !
लक्ष्मण की भाँति उबल उठा / आतंक फिर से !" (पृ. ४६७ ) - दृष्टान्त अलंकार ४. " हीरक - सम शुभ्र ।" (पृ. २३० )
अनेक स्थलों पर ग्राम्य एवं गढ़े हुए शब्दों का प्रयोग किया गया है, यथा :
" जो निराशता का पान कर ।"
१.
२. “ एक जीवन को पूरी तरह / जिलाती है।"
३. "इन्द्रियों का चाकर ।"
"चन्द्रमा का ही अनुसरण करती हैं / तारायें भी । "
“ बिलखती इस लेखनी को । ”
४.
५.
६. " अनखुली आँखों को लख कर ।"
७. "पहली वाली बदली वह ।" (वाली शब्द निरर्थक है)
८. “कलिलता । "
अनेक स्थलों पर लिंग दोष है, यथा :
१. “हमारी उपास्य देवता । "
(पृ. २२)
(पृ. ३८)
(पृ. ३९)
(पृ. १९२)
(पृ. १५१ )
(पृ. ४०५)
(पृ. १९९)
(पृ. १३)
(पृ. ६४ )