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मूकमाटी-मीमांसा :: 43 सूक्तियों में नीति के वचन थोड़े शब्दों में गागर में सागर की भाँति बड़ी सुन्दरता से व्यक्त होते हैं। इनमें उपदेश देने की निराली छटा होती है ।
'मूकमाटी' कार ने सूक्तियों के मोतियों से अपने काव्य को अद्भुत छटा प्रदान की है। साथ ही नीतियों के माध्यम से उसे रसवत्ता प्रदान की है । ये सूक्तियाँ एवं नीतियाँ पारम्परिक भी हैं तथा आचार्यजी द्वारा निर्मित भी हैं । इनके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
१. “प्रतिकार की पारणा / छोड़नी होगी, बेटा !
अतिचार की धारणा / तोड़नी होगी, बेटा !" (पृ. १२)
२.
" करुणा की कर्णिका से / अविरल झरती है / समता की सौरभ - सुगन्ध । " (पृ. ३९ ) ३. "लघुता का त्यजन ही / गुरुता का यजन ही / शुभ का सृजन है ।" (पृ. ५१ ) ४. " ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है।" (पृ. ६४)
५.
“ दयाविसुद्ध धम्मो ।” (पृ. ८८ )
६.
" आधा भोजन कीजिए / दुगुणा पानी पीव
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी / वर्ष सवा सौ जीव !” (पृ. १३३)
७. “लघु होकर गुरुजनों को / भूलकर भी प्रवचन देना / महा अज्ञान है दु:ख-मुधा, परन्तु,/गुरुओं से गुण ग्रहण करना /... महा वरदान है...।” (पृ. २१८-२१९) ८. “क्रोध का पराभव होना सहज नहीं ।" (पृ. २५२)
९. “जब सुई से काम चल सकता है/ तलवार का प्रहार क्यों ?" (पृ. २५७ ) १०. “ मन-वांछित फल मिलना हो / उद्यम की सीमा मानी है ।" (पृ. २८४) ११. “परीक्षक बनने से पूर्व / परीक्षा में पास होना अनिवार्य है,
अन्यथा/उपहास का पात्र बनेगा वह ।” (पृ. ३०३)
१२. " दाँत मिले तो चने नहीं, / चने मिले तो दाँत नहीं,
और दोनों मिले तो / पचाने को आँत नहीं !” (पृ. ३१८)
१३. " भोग ही तो रोग है ।" (पृ. ३५३)
१४. " मात्र दमन की प्रक्रिया से / कोई भी क्रिया / फलवती नहीं होती है।” (पृ. ३९१ )
१५. “ माटी, पानी और हवा / सौ रोगों की एक दवा ।” (पृ. ३९९)
१६. “बिन माँगे मोती मिले / माँगे मिले न भीख । " (पृ. ४५४)
१७. “मित्रों से मिली मदद / यथार्थ में मदद होती है।” (पृ. ४५९)
१८. “चोर इतने पापी नहीं होते / जितने कि / चोरों को पैदा करने वाले ।” (पृ. ४६८)
'मूकमाटी' महाकाव्य में कला- पक्ष
'मूकमाटी' की भाषा बड़ी समृद्ध है । कवि ने शब्दों के नगीनों को चुन-चुन कर जड़ा है। शब्दों के चामत्कारिक अर्थ हम 'व्याख्या' के अन्तर्गत देख चुके हैं । समानोच्चरित सानुप्रासिक शब्द कवि को अत्यधिक प्रिय हैं, यथा : १. “वातानुकूलता हो या न हो / बातानुकूलता हो या न हो ।” (पृ. ८७)
२. “निसर्ग से अनिमेष रहा इन्द्र भी / निमिष - भर में निमेषवाला बन गया । " (पृ. २४७)
३.
“ऊपर यन्त्र है, घुमड़ रहा है / नीचे मन्त्र है, गुनगुना रहा है।” (पृ. २४९)
४. “आँखों से अश्रु नहीं, असु / यानी, प्राण निकलने को हैं ।" (पृ. २७९ )