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40 :: मूकमाटी-मीमांसा व्याख्याओं का महाकाव्य : 'मूकमाटी'
_ 'मूकमाटी' कार सन्त हैं, प्रवचनकार हैं, धर्म-तत्त्व के ज्ञाता हैं, उसके व्याख्याकार हैं। जन-सामान्य को सम्बोधित करना, उन्हें सन्मार्ग में नियोजित करना, उनके हृदय में पुनीत भावों का प्रसार करना, अधर्म से उन्हें दूर करना ही आचार्यजी की जीवनचर्या है । ऐसे व्यक्ति भाव के धनी होते हैं। समाज, धर्म, दर्शन, नीति, राजनीति तथा संसार के तत्त्वों एवं तथ्यों को समझाते चलना आचार्यजी का कार्य है । प्रवचनकार के लिए यह भी आवश्यक है कि वह कुछ नए प्रयोग श्रोताओं के सम्मुख रखें । अपने प्रवचन को प्रभावशाली बनाने के लिए वह रोचकता लाने का प्रयास भी किया करता है । 'मूकमाटी'कार ने ऐसा ही किया है । 'मूकमाटी' महाकाव्य में विभिन्न प्रसंगों में आचार्य कवि ने विभिन्न प्रकार की व्याख्याएँ की हैं, यथा : १. कुम्भकार : “'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।" (पृ. २८) २. गदहा : "मेरा नाम सार्थक हो प्रभो!/यानी/'गद' का अर्थ है रोग
'हा' का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं/"बस,
और कुछ वांछा नहीं/गद-हा "गदहा"!" (पृ. ४०) ३. वर्ण : वर्ण शब्द का अर्थ आचार्यजी ने पारम्परिक नहीं लिया । इस सन्दर्भ में उनकी निम्न व्याख्या महत्त्वपूर्ण है :
“वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से/वरन्/चाल-चरण, ढंग से है यानी !/जिसे अपनाया है/उसे/जिसने अपनाया है/उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म-/"रूप-स्वरूप को/परिवर्तित करना होगा/वरना
वर्ण-संकर-दोष को/वरना होगा !" (पृ. ४७-४८) इसी सन्दर्भ में वे आगे लिखते हैं :
"नीर का क्षीर बनना हो/वर्ण-लाभ है,/वरदान है।
और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९) ४. आदमी : "संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है
जो यथा-योग्य/सही आदमी है।" (पृ. ६४) ५. कृपाण :
"कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न!" (पृ. ७३) ६. उपाधि : ____ "उपाधि यानी/परिग्रह - अपकारक है ना!" (पृ. ८६) ७. सल्लेखना : “सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को
कृश करना होता है, बेटा!" (पृ. ८७) ८. रात्रि: "धनी अलिगुण-हनी/शनि की खनी-सी'..
भय-मद-अघ की जनी।"(पृ. ९१) ९. कम्बल : "कम बलवाले ही/कम्बल वाले होते हैं।" (पृ. ९२)