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34 :: मूकमाटी-मीमांसा
लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी/प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं। प्राय: अनुचित रूप से/सेवकों से सेवा लेते/और वेतन का वितरण भी अनुचित ही।/ये अपने को बताते मनु की सन्तान !/महामना मानव !/देने का नाम सुनते ही इनके उदार हाथों में/पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी, एकाध बूंद के रूप में/जो कुछ दिया जाता/या देना पड़ता
वह दुर्भावना के साथ ही।" (पृ. ३८६-३८७) मत्कुण सेठ से भी कहता है :
"सूखा प्रलोभन मत दिया करो/स्वाश्रित जीवन जिया करो, कपटता की पटुता को/जलांजलि दो !/गुरुता की जनिका लघुता को श्रद्धांजलि दो !/शालीनता की विशालता में/आकाश समा जाय
और/जीवन उदारता का उदाहरण बने !" (पृ. ३८७-३८८) अन्त में आतंकवाद परास्त होता है और वह सन्मार्ग पर आ जाता है। आतंकवादी दल पाषाण फलक पर आसीन साधु की प्रदक्षिणा करता है, उसे प्रणाम करता है, और कहता है :
"हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है यहाँ सुख है, पर वैषयिक/और वह भी क्षणिक ! यह"तो'अनुभूत हुआ हमें, परन्तु/अक्षय सुख पर विश्वास हो नहीं रहा है;/हाँ हाँ !! यदि अविनश्वर सुख पाने के बाद/आप स्वयं उस सुख को हमें दिखा सको/या/उस विषय में अपना अनुभव बता सको/"तो/सम्भव है/हम भी आश्वस्त हो
आप-जैसी साधना को/जीवन में अपना सकें।" (पृ. ४८४-४८५) आत्मा का उद्धार पुरुषार्थ से ही होता है और परमात्म तत्त्व प्राप्त करने पर आत्मा को जो सुख प्राप्त होता है, वह अनिर्वचनीय होता है । तभी जीव के आवागमन का क्रम मिट जाता है । साधु के शब्दों में :
"बन्धन रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद,
यहाँ /संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७) गुरु को आचरण की दृष्टि से देखने पर उसकी सही पहचान होती है । गुरु का कथन भी है :
"इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर !/और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त. और माहौल को/अनिमेष निहारती-सी/"मूकमाटी।" (पृ. ४८८)