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मूकमाटी-मीमांसा :: 35
कथावस्तु का विश्लेषण
मूकमाटी की कथा सन्त कवि की तरह सरल, सीधी है । सरिता तट पर सुख मुक्ता, दु:ख युक्ता, तिरस्कृत त्यक्ता माटी मूक होकर पड़ी है। माँ धरती से पद माँगती है, पथ माँगती है, पाथेय माँगती है ताकि वह अपने जीवन को सार्थक बना सके । धरती उसकी प्रार्थना सुनती है और पर - हितार्थ उद्धार की योजना बनाती है । यही कथा का प्रारम्भ है।
कुम्भकार मिट्टी खोदता है, उसे गदहे पर लाद कर घर ले जाता है। पानी से भिगोकर उसे गीली बनाता है । पत्थर-कंकरों से उसे मुक्त करता है और घट का रूप देता है । कथा का यह विकास है । कथावस्तु के इस विकास के साथ ही माटी की विकास कथा भी गुँथी हुई है। कुम्भकार के प्रांगण में मोतियों की वर्षा घट की महत्ता सिद्ध करती है। साधक जब साधना पथ पर बढ़ता है तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु गन्तव्य का निश्चय हो जाने पर उसे ईश्वरीय सहायता भी प्राप्त होती चलती है।
कुम्भ को आग में पकाया जाता है। वह उत्कृष्ट रूपाकार प्राप्त करता है । उसके दोष जल चुके हैं । सद्गुण उसमें प्रवेश कर चुके हैं। वह नगर सेठ के यहाँ अतिथि के आहारदान हेतु लाया जाता है जहाँ अतिथि साधु उसके माध्यम से आहार दान प्राप्त कर तृप्त होता है । कथावस्तु की यह चरम सीमा है। साधक ब्रह्म के सान्निध्य के लिए साधना द्वारा पूर्णरूपेण तैयार हो चुका है। उसके अवगुण समाप्त हो चुके हैं। वह योग्य बन चुका है।
तभी आतंकवाद का सामना करना पड़ता है घट को । आतंकवाद के अनेक पक्षधर हैं । उधर कुम्भ की सहायता करने वाले भी हैं। पराजय आतंकवाद की होती है। कथा में उतार आता है। साधक को ईश्वर तत्त्व के निकट आकर भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। एक उर्दू शायर लिखता है
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“भँवर से बच निकलना तो बड़ा आसान है लेकिन सफीने ऐन दरिया के किनारे डूब जाते हैं । "
उधर साधक के सत्कर्म भी उसे बाधाओं को दूर करने में सहायक होते हैं।
कुम्भनगर सेठ को नीराग साधु तक पहुँचा देता है जो उसका गुरु है, ईश्वर तत्त्व है। कथा समाप्त होती है। साधक की साधना फलवती होती है। वह 'मंज़िल' तक पहुँच जाता है और मूकमाटी इस दृश्य को अनिमेष देखती रहती
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विविध सन्दर्भ
कथा के साथ सन्त कवि ने अनेक सन्दर्भों को देखा परखा है। कथा ने इन सन्दर्भों को महत्त्व दिया और इन सन्दर्भों ने कथा को गति दी है।
महाकाव्य में व्यक्त जीवन का घनत्व, प्रतीकत्व और विराटत्व ही महाकाव्य का मूल संवेदन बन सकता है। होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडसी' में तथा वर्जिल के 'एनियड' में शौर्य, साहस, प्रतिकार और बलिदान की विराट् जीवन भूमियाँ हैं । हमारे यहाँ 'रासो' और 'आल्हा' वैयक्तिक शौर्य तथा सामन्ती जीवनादर्शों की प्रतिष्ठा करते हैं । ‘रामायण' एवं 'महाभारत' भी मानवीय जीवन को अभिव्यक्ति देते हैं किन्तु हमने धर्म को सदा महत्ता दी है। भारतीय महाकाव्य युगधर्म की वज्र - ग्रन्थि रहे हैं । 'महाभारत' का केन्द्र 'भारत' युद्ध, न होकर 'गीता' है और अन्त में, ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ में उसकी सार्थकता व्यक्त हुई है । 'रामायण' में सत्य, निष्ठा, त्याग, तपस्या एवं दाम्पत्य की साधना और राक्षसत्व के पराभव की चर्चा है। तुलसी ने राम-रावण युद्ध को रामत्व और रावणत्व का शाश्वत संघर्ष बना दिया है। ‘कामायनी' में प्रसाद के मनु श्रद्धा का हाथ थामे ऊर्ध्वारोहण करते हुए शिव दर्शन के सामाहारिक रूप में